सामाजिक घटनाक्रमों के यथार्थ स्वरूप को चलचित्रों के माध्यम से प्रस्तुत करने की विधा सिनेमा है। समय के साथ-साथ इसके स्वरूप में भी परिवर्तन होते रहे हैं। कल तक जो सिनेमा पारिवारिक विघटन, भूख, गरीबी, बेरोजगारी, विपन्नता, जातिवाद, सामंतवाद एवं राजनीति की सड़ी-गली व्यवस्था को चलचित्रों के माध्यम से पर्दे पर प्रदर्शित करता था, वही सिनेमा आज वैश्वीकरण से प्रभावित होकर नग्नता, फूहड़ता आदि को पर्दे पर दिखा रहा है। सिनेमा में आए इस परिवर्तन को भारतीय मीडिया ने भी आत्मसात कर लिया है। कल तक सिनेमा की रिपोर्टिंग करने वाला पत्रकार सिनेमा के उन पहलुओं को उभारता था, जिससे वास्तव में पाठक या दर्शक अनभिज्ञ थे, किन्तु वर्तमान में बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव ने पत्रकारिता के उस भाव को बाजार में बेच दिया है। इसका प्रभाव फिल्मों के प्रदर्शित होने से पूर्व मीडिया द्वारा उस पर होने वाली चर्चाओं और उसे दिये गये रेटिंग प्वांइट्स में साफतौर पर नजर आता है।
सिने जगत आज हर युवा वर्ग की पसन्द है। इसलिए सिर्फ फिल्में ही नहीं बल्कि फिल्मी हस्तियां और उनसे जुड़ी खबरों को भी लोग वर्तमान दौर में काफी रूचि से पढ़ते हैं। इसके पीछे एक कारण और भी प्रतीत होता है कि भाग-दौड़ की जिन्दगी में जहां हर व्यक्ति तनावपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है, वहां उसे कुछ ऐसे साधन की चाह होती है जो उसे इन सब से थोड़ा दूर ले जा सके। आम आदमी को क्षणिक सुख प्रदान करने के लिए मीडिया द्वारा निभायी गई यह भूमिका सराहनीय कही जा सकती है, परंतु आज उसका स्तर जितना गिर गया है, वह सुख प्रदान करने से हट कर मनुष्य की वासनालोलुपता का व्यवसाय करने तक पहुंच गया है।
बात अगर फिल्मों की रिपोर्टिंग की करें तो जितना पुराना भारतीय फिल्म का इतिहास है उतना ही पुराना इतिहास फिल्मों की रिपोर्टिंग का भी है। 1932 में जब पहली सवाक फिल्म ‘आलमआरा’ को पर्दे पर प्रदर्शित किया गया तो उस समय पर्दे पर बोलते व चलते लोगों को देखने के लिए काफी भीड़ जुट जाती थी। धीरे-धीरे लोगों के बीच फिल्मों को लेकर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया। कोई कहता कि यह सब चित्र नहीं जादू है, तो किसी के विचार से यह सब पर्दे के पीछे बैठा जादूगर करता है। फिल्मों से जुड़े ऐसे कई सवालों के प्रश्न लोग स्वयं ही उठाते और स्वयं ही इन प्रश्नों का हल निकाल लेते थे, किन्तु कोई भी व्यक्ति पूर्णतया संतुष्ट नहीं हो पाता था। इन सभी उठते प्रश्नों के महाजाल और फिल्मों के प्रति समाज में व्याप्त हो रही भ्रामक जानकारियों को देखते हुए श्री लेखराम के दिमाग में आया कि यदि लोगों के मस्तिष्क में उठ रहे सवालों का जवाब उन्हें पत्रिका के माध्यम से दिया जाये तो यह पत्रिका काफी लोकप्रिय होगी। इस विचार से उन्होंने सन 1932 में ‘रंगभूमि’ नाम से एक साप्ताहिक फिल्मी पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया। पत्रिका बाजार में आते ही लोगों ने उसे हाथों-हाथ ले लिया। चार सालों तक बाजार में अन्य कोई भी फिल्मी पत्रिका का प्रकाशन न होने के कारण ‘रंगभूमि’ ने अपना एक अच्छा-खासा पाठक वर्ग तैयार कर लिया, लेकिन बाजार में जब किसी वस्तु की मांग बढ़ने लगती है तो यह बाजार की नियति है कि वहां प्रतिस्पर्धी खड़े होने शुरू हो जाते हैं। ‘रंगभूमि’ की बढ़ती लोकप्रियता को देख 1936 में ऋषभ चरण जैन ने ‘चित्रपट’ नामक फिल्मी पत्रिका प्रकाशित की। बाजार में प्रतिस्पर्धा की दौड़ आरम्भ हो गई। फिल्मी खबर पढ़ने वाले पाठकों को दोनों ही पत्रिकाओं का बेसब्री से इंतजार रहता था। यह पत्रिकाएं फिल्मों के साथ ही साथ तात्कालिक समाज में चल रहे घटनाक्रमों को भी अपने पाठकों के समक्ष इस प्रकार से परोसती थी कि पाठक वर्ग को इससे ऊबाऊपन महसूस न हो।
1947 में देश आजाद हुआ, जिसका प्रभाव आम जनमानस के साथ-साथ फिल्मों पर भी पड़ा। आजादी के पूर्व फिल्म निर्माण का एक बड़ा केन्द्र लाहौर था, इस कारण बंटवारे के समय सिने जगत से जुड़े कलाकार, निर्माता, निर्देशक व अन्य सभी इधर-उधर हो गए। इस कारण एक ओर जहां यह दोनों पत्रिकाएं प्रभावित र्हुइं, वहीं दूसरी ओर सिने जगत की पत्रकारिता करने वाले लोग भी बिखर गये। हालांकि दोनों ही पत्रिकाओं का अंक निकलता तो रहा लेकिन इनमें अब वो पहले जैसी बात नहीं रह गई और धीरे-धीरे इन दोनों पत्रिकाओं का सूर्य अस्त हो गया। 1947 में ‘चित्रपट’ के संपादक रहे श्री संतपाल पुरोहित ने उससे अलग हो अपनी स्वयं की फिल्मी पत्रिका ‘युगछाया’ निकाली। यह भी आर्थिक अभाव के कारण लंबे समय तक प्रकाशित नहीं हो सकी। इसके बंद होने के बाद दिल्ली से प्रकाशक बृजमोहन ने ‘फिल्मी चित्र’ नाम की एक पत्रिका निकाली, लेकिन फिल्मी कहानियों के साथ-साथ इसमें राजनीतिक खबरें होने के कारण यह पाठक वर्ग द्वारा नापसंद की जाने लगी और इसका भी प्रकाशन जल्द ही बंद हो गया। इसका एक सीधा तात्पर्य यह भी है कि तात्कालिक समय का पाठक वर्ग भी फिल्मों की पत्रिका में सिर्फ फिल्मों की ही खबर चाहता था न कि अन्य खबर। इसके बाद फिल्मों से जुड़े विषय पर कई और पत्रिकाएं जैसे बच्चन श्रीवास्तव की ‘कल्पना’, ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘सरगम’, ए. पी. बजाज की ‘मायापुरी’ आदि प्रकाशित हुई। इनमें से कुछ पत्रिकाओं का प्रकाशन अभी भी जारी है, जैसे ‘मायापुरी’। 60 के दशक में आने वाली पत्रिकाओं में पाठक द्वारा रूचि लेने के पीछे एक बहुत बड़ा कारण यह भी था कि उस समय की पत्रिकाओं में सामग्री अच्छी होने के साथ-साथ वे घर में परिवार के सदस्यों के बीच पढ़ने योग्य होती थी, लेकिन जैसे-जैसे समय के साथ समाज में परिवर्तन होता गया, वैसे-वैसे इन पत्रिकाओं के कलेवर और सामग्री में भी परिवर्तन होता गया। परिवर्तन सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहा बल्कि पाठकों की सोच में भी अन्तर आया। तब से अब तक का सफर तय करने वाली ‘मायापुरी’ में काफी परिवर्तन हुए। प्रतिस्पर्धा की दौड़ कहें या बाजार का प्रभाव, वर्तमान में ‘मायापुरी’ के भी मुखपृष्ठ पर अर्द्धनग्न हीरोइनों के चित्र छापे जाने लगे हैं।
पत्रिकाओं के बाद फिल्मी खबरों का दौर अखबारों में भी धीरे-धीरे शुरू होने लगा। 70 के दशक में जब अमिताभ बच्चन के यंग एंग्रीमैन का फ्लू पूरे देश में फैला, तब फिल्मों की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनने लगी। सिने जगत के खास समाचारों को अखबारों के मुखपृष्ठ पर प्रमुखता के साथ छापा जाने लगा। तात्कालिक समय में अखबारों के पृष्ठ-संख्या कम होने के बावजूद भी सिने जगत की खबरों को छापा जाता था। धीरे-धीरे यह प्रक्रिया बढ़ती रही और एक ऐसा वक्त भी आ गया जब समाचार पत्र के साथ हर सप्ताह फिल्मों पर चार रंगीन पृष्ठ फिल्मी खबरों के लिये निकाले जाने लगे। फिल्मी खबरों के लिए समाचार पत्रों में स्थान धीरे-धीरे कुछ इस प्रकार से बढ़ा कि दैनिक भास्कर ने 1997 से ‘नवरंग’ नाम से चार रंगीन पृष्ठ सिने जगत से जुड़ी खबरों के लिए छापने शुरू कर दिये। इसके अतिरिक्त दैनिक जागरण ने ‘तरंग’, लोकमत ने ‘आकर्षण’, नई दुनिया ने ‘रविवारीय’, राजस्थान पत्रिका ने ‘बॉलीवुड’, दैनिक ट्रिब्यून ने ‘मनोरंजन’, नाम से फिल्म परिशिष्ट निकाले। आज स्थिति यह हो गई है कि ऐश्वर्य राय बच्चन को बच्चा हो रहा है, तो भी खबर उनके फोटों के साथ मुखपृष्ठ पर छपती है।
1960 से 1970 के बीच जब बंगाल में नक्सलवाद की तेज आंधी चल रही थी, ऐसे में भी सत्यजीत रे जैसे लोग सृजनात्मक वयस्कता की ओर बढ़ रहे थे। उनमें नई समझ और सामाजिक विकलता भी बढ़ रही थी और इसका पूरा प्रयोग तात्कालिक समय में आयी उनकी फिल्मों में दिखाई देता है। उस समय प्रदर्शित होने वाली फिल्में
सामाजिक समस्याओं को उठाते हुए, उन्हें सुलझाने का प्रयास करते हुए आपसी सम्बन्ध को मजबूत करने के लिए प्रेरित करती थी। किन्तु इसके विपरीत पिछले एक दशक में आने वाली अधिकतर फिल्में केवल फूहड़पन, अश्लीलता व नग्न प्रदर्शन परोसने के बावजूद और अच्छी पटकथा न होने पर भी सिर्फ संचार माध्यमों के द्वारा जोर-शोर से प्रचार-प्रसार कर प्रदर्शित की जा रही है। पूर्व में सिने जगत की रिपोर्टिंग करने वाला पत्रकार फिल्मों की पटकथा का जो चित्रण अपनी लेखनी के माध्यम से करता था, वही चित्रण लोगों को फिल्मों में भी दिखाई देता था। किन्तु आज का मीडिया इसके ठीक विपरीत हवाओं में बह रहा है। आज मीडिया द्वारा जिस फिल्म को अच्छी रेटिंग प्वाइंट के साथ दर्शकों व पाठकों के बीच लाया जाता है, वास्तविकता उसके विपरीत होती है। कहीं-कहीं तो अलग-अलग मीडिया प्रकाशनों द्वारा दिये जाने वाले इस रेटिंग प्वाइंट में भी इतनी विभिन्नता होती है कि पाठक व दर्शक यह स्वयं तय नहीं कर पाते की वास्तव में उस फिल्म को देखना चाहिए अथवा नहीं।
मीडिया को समाज का आईना कहते हैं, इसलिए वह जो कुछ दिखाता है आम जन उसी आधार पर अपनी सोच को बनाता है। उदाहरणस्वरूप, अभी हाल ही में प्रदर्शित चर्चित अभिनेता शाहरूख की फिल्म ‘रा.वन’ को मीडिया द्वारा मिलने वाले रेटिंग प्वाइंट की बात करें तो दैनिक जागरण ने इसे जहां 5 प्वांइट में से 4 प्वाइंट दिये वहीं हिन्दुस्तान टाइम्स ने 2 प्वाइंट, टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने 3.5, इंडिया टुडे पत्रिका ने 3.5, दैनिक हिन्दी समाचार पत्र इंडियन एक्सप्रेस ने 2 प्वाइंट, इकनॉमिक टाइम्स समाचार पत्र ने 3.5, दैनिक भास्कर ने 3 प्वाइंट, न्यूज चैनल आईबीएन लाइव ने 2.5, जी न्यूज ने 2 प्वाइंट, दैनिक हिन्दी समाचार पत्र डीएनए ने 3 प्वाइंट दिये हैं। इस प्रकार से यहां यह स्पष्ट रूप से देखने को मिल रहा है कि दिये गये रेटिंग प्वाइटों में काफी अन्तर है। अब अगर बात इस फिल्म को लेकर जनता के विचारों की करें तो दर्शकों द्वारा इसे सिरे से नकार दिया गया। दर्शकों ने इसे ‘टाइमपास’ और ‘बकवास’ जैसे शब्दों से सम्बोधित किया, बावजूद इसके कि कई न्यूज चैनलों व समाचार पत्रों ने इसे अच्छे रेटिंग प्वाइंट्स दिये। मीडिया द्वारा दिया जाना वाला यह रेटिंग प्वाइंट किस आधार पर निर्धारित होता है, यह तो इन मीडिया संस्थानों के मालिक ही बता सकते हैं।
वर्तमान समय में बाजार से प्रभावित मीडिया संस्थानों की स्थिति कुछ ऐसी है कि प्रतिस्पर्धा में शीर्ष पर पहुंचने की ललक ने इन्हें पथभ्रष्ट कर दिया है। पैसे दे कर अपनी बात कहलवाना आज यहां बहुत आसान हो गया है। इस बात से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि वास्तव में तथ्य व सत्य क्या है? और इसके प्रकाशित हो जाने के पश्चात इसके क्या परिणाम होंगे? ऐसी स्थिति में चैथे स्तम्भ पर से भी आमजन का विश्वास धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में इन फिल्मों का समाज पर जो प्रभाव पड़ रहा है, वह सही नहीं है। अतः इस व्यवस्था में सुधार की बहुत आवश्यकता है।