महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनरेगा) अधिनियम , एक भारतीय रोजगार गारंटी योजना है . जिसे २५ अगस्त २००५ को विधान द्वारा अधिनियमित किया गया था .यह योजना प्रत्येक वितीय वर्ष में किसी भी ग्रामीण परिवार के उन वयस्क सदस्यों को १०० दिन का रोजगार उपलब्ध कराती है जो प्रतिदिन १०० रुपये की सांविधिक न्यूनतम मजदूरी पर सार्वजनिक कार्य -सम्बंधित अकुशल मजदूरी करने के लिए तैयार हैं .२०१० -११ वितीय वर्ष में इस योजना के लिए केंद्र सरकार का परिव्यय ४० ,१०० करोड़ रुपये है .इस में रहने अधिनियम को ग्रामीण लोगो की क्रय शक्ति बढ़ाने के उद्देश्य से शुरू किया गया था .मुख्य रूप से ग्रामीण भारत में रहने वाले लोगों के लिए अर्ध -कौशलपूर्ण या बिना कौशलपूर्ण कार्य ,चाहे वे गरीबी रेखा से नीचे हों या न हों ,नियत कार्य बल का करीब एक तिहाई महिलाओं से निर्मित है .शुरू में इसे राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा ) कहा जाता था ,लेकिन २ अक्टूबर २००९ को इसका नाम परिवर्तित कर महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनरेगा) अधिनियम कर दिया गया .
प्रक्रिया : इस योजना से लाभान्वित होने के लिए ग्रामीण परिवारों के वयस्क सदस्य , ग्राम पंचायत के पास एक फोटो के साथ अपना नाम ,उम्र और पता जमा करते हैं .जांच के बाद पंचायत घरों को पंजीकृत करता है और एक जॉब कार्ड प्रदान करता है .जॉब कार्ड में पंजीकृत वयस्क सदस्य का ब्यौरा और उसकी फोटो शामिल होती है .एक पंजीकृत व्यक्ति , या तो पंचायत या कार्यक्रम अधिकारी को लिखित रूप से (निरंतर काम के कम से कम चौदह दिनों के लिए ) काम करने के लिए एक आवेदन प्रस्तुत कर सकता है .आवेदन दैनिक बेरोजगारी भत्ता आवेदक को भुगतान किया जायेगा .इस अधिनियम के तहत पुरुषों और महिलाओं को सामान वेतन देने की योजना अन्तर्निहित है ,इनमे किसी प्रकार का भेद भाव नही है .
इस प्रकार मनरेगा यह दर्शाता है कि कार्य को ग्रामीण विकास गतिविधियों के एक विशिष्ट सेट की ओर उन्मुख होना चाहिए जैसे जल संरक्षण ,वनीकरण ,बाढ़ नियंत्रण ,ग्रामीण संपर्क तंत्र और सुरक्षा जिसमें शामिल है तटबंधों का निर्माण ,वृक्षारोपण आदि . जबकि दूसरी ओर भारत का नियंत्रक एवम महालेखा परीक्षक (सीएजी)
ने मनरेगा के इस अधिनियम के कार्यान्वयन में बड़ी कमियों को पाया है .इस योजना को फरवरी २००६ में २०० जिलों में शुरू किया गया था और अंत में ५९३ जिलों तक विस्तारित किया गया.२००८ -०९ के दौरान ४,४९,४०,८७० ग्रामीण परिवारों को नरेगा के तहत रोजगार उपलब्ध कराया गया ,जहां प्रत्येक परिवार में ४८ कार्यदिवस का राष्ट्रीय औसत था .एनआरईजीए के तहत सभी के लिए १०० दिन का रोजगार उपलब्ध कराने में सरकार असफल साबित हुई .
इस योजना की अब तक काफी आलोचनाएं हो चुकी है, और तर्क दिया गया कि यह योजना भी गरीबी उन्मूलन की अन्य योजनाओं से अधिक प्रभावी नहीं है .मनरेगा दुनिया में अपनी तरह की सबसे बड़ी पहलों में से एक है .वर्ष २००६-०७ के लिए राष्ट्रीय बजट ११३ बीलियन रुपये था (लगभग यूएस$ २ .५ bn और सकल घरेलू उत्पाद का लगभग ०.३ % )और अब पूरी तरह चालू होकर इसकी लागत २००९ -१० वित्तीय वर्ष में ३९१ बीलियन रुपये हो गया .बेल्जियम में जन्मे और दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स के एक अर्थशास्त्री डॉ . ज्यां द्रेज ने इस सन्दर्भ में सुझाव था कि इसका वित्त पोषण उन्नत कर प्रशासन और सुधारों से किया जा सकता है जबकि अभी तक कर-जीडीपी अनुपात वास्तव में गिरता जा रहा है ,ऐसी आशंका भी जतायी जा रही है कि इस योजना कि लागत जीडीपी का ५ प्रतिशत हो जाएगी .इसकी आलोचनाओं में एक कड़ी और भी जुडी है कि सार्वजनिक कार्य योजना का अंतिम उत्पाद (जैसे - जल संरक्षण ,भूमि विकास ,वनीकरण ,सिंचाई प्रणाली का प्रावधान ,बाढ़ नियंत्रण ,सड़क निर्माण ) असुरक्षित है ,जिन पर समाज के धनी वर्ग का अधिपत्य हो रहा है .पूर्व में मध्य प्रदेश में नरेगा के एक निगरानी अध्ययन में दिखाया गया कि इस योजना के तहत कि जा रहीं गतिविधियाँ सभी गावों में कमोबेश मानकीकृत हो गयी थी,जिसमें स्थानीय परामर्श नहीं के बराबर था .आगे कि चिंताओं में भी यह तथ्य शामिल है कि स्थानीय सरकार के भ्रष्टाचार के कारण समाज के कुछ ख़ास वर्गों को बाहर रखा जाता है .ऐसा भी पाया गया है कि स्थानीय सरकारों ने काम में लगे व्यक्तियों की वास्तविक संख्या से अधिक नौकरी कार्डों का दावा किया ताकि आवश्यकता से अधिक फंड को हासिल किया जा सके ,जिसे फिर स्थानीय अधिकारीयों द्वारा गबन कर लिया जाता है .
ऐसे में ग्रामीण विकास के उत्थान के लिए बनाये जा रहे ऐसी योजनाएं कहां तक सफल साबित होगी ? क्या देश में गरीब हमेशा भुखमरी की मौत ही मरता रहेगा ? इन सारे प्रश्नों का उत्तर भविष्य कालीन ही रह जायेगा या वर्तमान सरकार इस सन्दर्भ में कोई ठोस कदम उठायेगी . अब तो सिर्फ यह देखना है .
wakyi jordar likha hai aapne..........
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