Friday, February 18, 2011

क्षमादान या दंड

पीयूसीएल के नेता नोबेल पुरस्कार से सम्मानित डॉ विनायक सेन को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124 के अन्तर्गत राज्य के खिलाफ षडयंत्र रचने और देश द्रोह के आरोप में छत्तीसगढ़ की एक निचली अदालत ने प्रतिबंधित माओवादियों की सहायता करने के आरोप में देश द्रोह का दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।स्थिति यह है कि जेल को चक्रव्यूह बना दिया गया है और सेन को हाई सिक्योरिटी सेल में रखा गया है,बावजूद इसके चार-पॉंच दिनों से अधिक एक ही जगह पर उन्हें नहीं रखा जा रहा है अर्थात जेल परिवर्तन भी कर दिया जा रहा है।उनके साथ दो अन्य को भी यही सजा सुनाई गयी थी।इनमें से एक नारायण सान्याल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं और दूसरे पीयूष गुहा कोलकाता के व्यापारी हैं।गत् 24 दिसंबर को अदालत द्वारा विनायक सेन को उम्र कैद की सजा सुनाए जाने पर पूरे विश्व में कड़ी प्रतिक्रिया जतायी गयी थी।भारत में भी कई बुद्धिजीवियों ने इस सजा की घोर निंदा की इस घटना के बाबत दुनिया के चालीस नोबेल पुरस्कार प्राप्त बुद्धिजीवियों ने एक संयुक्त अपील जारी करते हुए विनायक सेन की रिहाई की मांग की है।उनका मानना है कि विनायक सेन असाधारण ,निर्भीक और स्वार्थहीन व्यक्ति हैं ,जिन्होंने निस्वार्थ भाव से ऐसे लोगों की सहायता की है जो स्वयं अपनी सहायता करने योग्य नहीं होते हैं।इस अपील पर हस्ताक्षर करने वाले बुद्धिजीवी भौतिक , रसायन , चिकित्सा और अर्थशास्त्र से संबंधित हैं।तीन दशक से छत्तीसगढ़ में काम कर रहें पेशे से डॉक्टर विनायक सेन को राज्य सरकार और  पुलिस ने माओवादियों के साथ इनकी सांठ गांठ होने का दोषी करार देते हुए गिरफ्तार तो जरूर कर लिया है लेकिन जनविद्रोह का सामना कर पाना सरकार के लिए अब भी पहाड़ तोड़ने जैसा है।  इस घटना का प्रतिरोध अदालती कार्यवाही के निगहबान बनने आए यूरोपीय यूनियन के प्रतिनिधिमंडल को खासा भुगतना पड़ा।इस प्रतिनिधी मंडल में बेल्जियम, जर्मनी, स्वीडन, फ्रांस,हंगरी और ब्रिटेन के प्रतिनिधी समेत कुल 8 लोग थे। 6 फरवरी 2011 की रात जब यह प्रतिनिधी मंडल रायपुर पहुचा तो इसे हवाई अड्डे के बाहर ही हाथ में काले झंडे लिए और नारेबाजी करते हुए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के लगभग 100 से अधिक छात्रों के विरोध का सामना करना पड़ा।ये छात्र ईयू प्रतिनिधिमंडल के वापस जाने की मांग कर रहे थे।इस संदर्भ में कुछ जानकारों का यह भी कहना है कि एैसा शायद पहली बार हुआ है कि कोई विदेशी प्रतिनिधिमंडल अदालती कार्यवाही के दौरान अदालत में मौजूद रहने पर अड़ा हो।अब गॉंधी की दुहाई का उपयोग विनायक सेन के लिए न्याय तथा मानवीय अधिकारों की लड़ाई में किया जा रहा था, जबकि उन पर सच हो या झूठ , विचार संचालित हिंसा से जुड़े माओवादियों का साथ देने का ही आरोप है।विनायक सेन के मामले में देश भर में ही नहीं , दूसरे देशो  में भी जिस तरह से आवाजें उठी हैं, उससे एक बात तो स्पष्ट है कि यदि छत्तीसगढ की निचली अदालत ने उन्हें संदिग्ध आधार पर कड़ी सजा देकर माओवादियों के समर्थन पर अंकुश लगाना चाहा था, तो उसकी यह कोशिश उल्टी पड़ी है।बेशक , इसमें विनायक सेन के व्यक्तित्व और काम की अपनी भूमिका भी है।इस घटना के बाबत हिंसा का मुकाबला करने के कदमों का पूरी मुस्तैदी से संविधान कानून के दायरे में होना सुनिश्चित करना होगा।ऐसी जनतांत्रिक वैधता के बिना शासन की कार्रवाई अपने लक्ष्य से दूर ही होती जाती है। लेकिन,ऐसी जनतांत्रिक वैधता की जरूरत क्या सिर्फ शासन को ही है? क्या शासन से बाहर , कथित सिविल सोसाइटी को और खासतौर पर खुद को जनतंत्र तथा मानवाधिकारों का संरक्षक मानने वालों को ऐसी जनतांत्रिक वैधता की कोई जरूरत नहीं है? आमतौर पर इन ताकतों के व्यवहार को देखकर तो ऐसा ही लगता है कि नहीं, या शायद यह कहना ज्यादा सही होगा कि यहां यह मानकर चला जाता है कि शासन के बाहुबल के विरोध में ,जनतांत्रिक वैधता अपने आप ही समायी हुई है। हमारे देश में , जहां सत्तर के दशक के उत्तरार्द्ध में इमर्जेंसी के अनुभव के बीच से ही किसी ध्यान देने लायक पैमाने पर मानवाधिकार नागरिक अधिकार के सवालों ने सिविल सोसाइटी के बीच जगह बनायी थी, कुछ समय तक यह स्थिति आसानी से चलती रही लेकिन जल्द ही व्यापक नागरिक अधिकार गोलबंदी के पीयूसीएल तथा पीयूडीआर में विभाजन ने इस मोर्चे पर दक्षिण वामपंथी राजनीति रूझानों के अंतर को सामने ला दिया और इन दोनों के ही सिविल सोसाइटी में हाशिये  पर ही पड़े रहने ने,जनतांत्रिक वैधता के अभाव में इन चिंताओं के ही बहुत सीमित दायरे में बने रहने को सामने ला दिया।
दूसरी तरफ डॉ. विनायक सेन की धर्मपत्नी इलिना सेन जो कि वद्रधा स्थित महात्मा गांधी राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय  में एक शिक्षिका होने के साथ - साथ इंडियन एसोसिएशन ऑफ वूमन स्टडीज में (आईएसडब्ल्यूएस) समन्वयक भी है के विरूद्ध वद्रधा पुलिस थाने में मामला दर्ज कराया गया है। उन पर आरोप है कि उन्होंने  एसोसिएन के तीन दिवसीय एक कार्यक्रम में अपने पति तथा नक्सलियों के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए सहयोग मांगा था। हालांकि इलिना ने इस सन्दर्भ में अपनी कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की है। कई बुद्धिजीवियों ने अदालत और पुलिसिया कार्रवाई की इस घटना पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया दी है। उच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ अधिवक्ता रवि किरन जैन ने इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण दिया गया फैसला बताते हुए इसे राजनीतिक दबाव में दिया गया फैसला कहा। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका द्वारा दिया गया यह फैसला सिर्फ और सिर्फ जनतांत्रिक आवाजों को दबाने वाला फैसला है।
 लोकतांत्रिक संस्थाओं की विफलता के बावजूद हमारा मानना है कि इलाज जम्हूरियत के भीतर से ही निकल सकता है और ना कि इसे तबाह करके।लेकिन अदालत ने यह पाया कि डॉ. विनायक सेन ने नक्सलियों की चिट्ठी जेल से बाहर लाकर उनके हरकारे का काम किया है और इसलिए उन्हें उम्र कैद की सजा दी गयी है। हालाकि उनके इस गलती का खामियाजा कई पुलिसवालों को भुगतना पड़ा है। अब जरा इन बातों पर गौर करें कि जिन पुलिसवालों के घरों में इकलौता वह व्यक्ति कमाने वाला होगा जो विनायक सेन की गलतियों द्वारा माओवादियों के हाथों शहीद हुआ होगा और जिसके घर में वर्तमान में दो वक्त की रोटी के भी लाले पड़ रहे होंगे। क्या उनके लिए विनायक सेन को माफ कर पाना इतना आसान होगा? शायद नहीं। क्या जो लोग आज विनायक सेन की रिहाई की मांग कर रहें हैं,वे उन घरों के चूल्हे जला सकते हैं? क्या उस मांग के सिंधूर को फिर से भरा जा सकता है,जो विनायक सेन की गलतियों के कारण सूने हो गए हैं? जवाब सिर्फ और सिर्फ एक ही है,नहीं।फिलहाल तो इस सन्दर्भ में हाइकोर्ट ने भी विनायक सेन की पत्नी इलिना द्वारा दायर रिहाई की याचिका को निरस्त कर दिया है,लेकिन देखना तो अब यह है कि जीत आखिर किसकी होगी?........