Friday, April 22, 2011

गांवों में रोजगार के अवसर



गांवों की परिकल्पना करते ही नजरों के सामने एक सुन्दर हरा - भरा सा दृश्य  घूमता दिखाई देता है। लेकिन वर्तमान समय में गांवों की स्थिति खराब होते जा रही है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण ग्रामीण क्षेत्रों के युवाओं की सोच में हो रहा परिवर्तन है। ग्रामीण युवा आज जीविकोपार्जन के लिए हर की ओर पलायन कर रहें हैं जबकि संचार और अन्य क्षेत्रों में गांवों के लिए बड़ी तेजी से विकास कार्य किए जा रहें हैं ताकि उन्हें अपनी आजीविका के लिए बाहर जाने की आवश्यकता  न हो। दे के कुल ग्रामीण इलाकों में सार्वजनिक पीसीओ की संख्या लगभग 17.18 लाख है जो किसी न किसी रूप में युवाओं के लिए रोजगार का अवसर प्रदान कर रहें हैं।

भारत में जब संचार क्रान्ति की शुरुवात हुई तो लोगों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह विकास में ही योगदान नहीं देगा बल्कि उनकी जीविका का साधन भी बन सकता है। भारतीय अर्थव्यवस्था में दूरसंचार की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है। वर्तमान समय में जिस अनुपात में संचार सुविधाओं का अनुपात हो रहा है,उससे भी कहीं अधिक तेजी के साथ युवाओं के लिए रोजगार के साधन विकसित हो रहें हैं। आज इंटरनेट आम आदमी की आवश्यकता  बनता जा रहा है। इंटरनेट के तेजी से हो रहे विस्तार के कारण आज गांवों में भी साइबर ढाबे खुल रहें हैं। इसकी उपलब्धियों एवं विकास को देखते हुए केन्द्र सरकार भी इस मद में सहायता दे रही है। गांवों के सचिवालय को जहां इन्टरनेट से जोड़ा जा रहा है , वहीं पीसीओ खोलने, मोबाइल शॉप आदि के लिए ऋण तक की व्यवस्था की जा रही है।

विभिन्न विकासशील  देशों  से चार कदम आगे बढ़कर भारत संचार सेवाओं के विस्तार के सिरमौर बनता जा रहा है। इतना ही नहीं राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में दूरसंचार क्षेत्र का योगदान तेजी से बढ़ रहा है। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2006-07 में जहां भारतीय अर्थव्यवस्था में दूरसंचार की भागीदारी 2.73 फीसदी थी वहीं  वर्ष 2008-09 में यह बढ़कर 3.14 फीसदी पर पहुँच  गयी। विकास का पहिया यहीं नहीं रूक कर बल्कि और तेजी से बढ़ता है,जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 2009-10 में संचार क्षेत्र की भागीदारी 5.4 फीसदी तक पहुँच  गयी। संभावना जताया जा रहा है कि यह इसी गति से और अग्रसरित होती रहेगी। दूरसंचार क्षेत्र का सकल राजस्व भी बढ़ रहा है। मार्च, 2007 में जहां सकल राजस्व 1172.68 सौ अरब था वहीं वर्ष 2010 मार्च में 1579.85 सौ अरब पहुँच  गया है।

दूरसंचार की औद्योगिक स्थिति पर अगर गौर करें तो 1991 तक यह पूरी तरह से सरकारी क्षेत्र के अन्तर्गत था। सरकार द्वारा इसके विस्तार की योजना बनायी गयी।आरम्भ में भारत के चार महानगरों दिल्ली,कोलकाता,चेन्नई व मुम्बई में मोबाइल सेवा प्रारम्भ करने की योजना बनायी गयी और निजी क्षेत्र को भी आमंत्रित किया गया । इसके पीछे मूल उद्देश्य  प्रत्येक व्यक्ति तक आसानी से यह सुविधा मुहैया कराना था , जिससे प्रत्येक व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार कंपनी का चयन करे और प्रतिस्पर्धी बाजार में स्वयं को खड़ा कर सके। वर्ष 2003 में लाइसेंस की प्रक्रिया शुरू  हुई और वर्तमान में यूएएस के 12-14 लाइसेंसधारी हैं, जिससे स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में कड़ी प्रतिस्पर्धा के साथ ही उपभोक्ता को भी लाभ मिल रहा है।

अगर हम आंकड़ों की ओर गौर करें तो वर्ष 1996 में कुल 119.3 टेलीफोन कनेक्शन  थे। इसमें 27.03 लाख कनेक्शन  अकेले ग्रामीण क्षेत्रों के थे। स्वाभाविक रूप से ग्रामीण एवं शहरी  क्षेत्र में उस समय फोन  का विस्तारण बहुत कम था। जिसे देखते हुए सरकार ने टेलिफोन विस्तार के तहत गांवों में सार्वजनिक टेलीफोन केंद्र की नीति बनाई। इसके परिणामस्वरूप टेलिफोन सेवा का तेजी से विस्तार हुआ है। अगस्त 2010 में जारी विभागीय आंकड़ों के अनुसार इस समय दे में टेलीफोनों की संख्या 7063.85 लाख है। इसमें वायरलाइन 373.26 लाख हैं जबकि वायरलैस 6706.20 हैं। इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में 2302.44 लाख कनेक्शन हैं। जाहिर है कि दूरसंचार सूचना तकनीकी की जीवनरेखा बन गया है तो जीविकोपार्जन का साधन भी।

भारत में दूरसंचार के क्षेत्र में प्रमुख आंकड़े -
.           27 अरब घंटे प्रत्येक माह दुनिया का इंटरनेट पर गुजरता है ।
.           1.7 अरब घंटे याहू साइट पर।
.           2.5 अरब घंटे गूगल साइट पर ।
.           3.9 अरब घंटे माइक्रोसाफ्ट साइटों पर ।
.           1.4 अरब घंटे सोशल  साइट पर।
.           10 लाख घंटे डाटकाम एवं डाटा नेट जोमेन पंजीकृत है।

ग्रामीण सार्वजनिक टेलिफोन -
                     मार्च 2010                       अगस्त 2010
                                           
                                                 565960                                                               567432

   पीसीओ                     18.58                                                                 17.17
                                           
                                                मार्च 2010                                                अगस्त 2010

घनत्व                       52.74 फीसदी                       59.63 फीसदी

ग्रामीण                      24.31 फीसदी                              27.76 फीसदी       

मोबाइल का प्रचलन तेजी से बढ़ा तो तो इस क्षेत्र में भी रोजगार की संभावनाएं बढ़ गई।  हर ही नहीं खासतौर से ग्रामीण क्षेत्रों में इसका कारोबार बढ़ा है। षहरों में जहां मोबाइल खराब होने के बाद लोग नए मोबाइल सेट खरीदना पसंद करते हैं वहीं गांवों में ऐसी स्थिति नहीं है। यहां लोग नया सेट न लेकर पुराने को ही बनवाना अधिक उचित समझते हैं,यही कारण है कि मोबाइल मेंटनेंस की दुकानें  हरों की अपेक्षा गांवों में अधिक होती जा रहीं हैं। अब जरूरत है तो सिर्फ यहां रह रहें युवाओं को चेतने की और दूरसंचार के बढ़ रहे विस्तारीकरण को समझते हुए गांवों में ही जीविकोपार्जन के माध्यम को तला ने की ।

Tuesday, April 12, 2011

कृषि उत्पादकता में कमी



भारतीय अर्थव्यवस्था प्राचीनकाल से ही कृषि प्रधान रही है .प्राचीनकाल में भारत में कृषि प्रणाली बहुत विस्तृत रूप में थी .उस समय ग्रामवासी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अत्यधिक स्वालंबी एवं आत्मनिर्भर थे .आज भी भारत की ६० प्रतिशत जनता आजीविका के लिए कृषि पर ही निर्भर है ,किन्तु भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि एवं उससे सम्बद्ध क्षेत्र का योगदान सापेक्षिक रूप से घटता जा रहा है 
.यह सामान्य स्वीकृत मान्यता है कि जैसे जैसे कोई देश आर्थिक विकास करता है ,उसके सकल घरेलू उत्पाद में सेवा क्षेत्र तथा दितीयक क्षेत्र  का सापेक्षित योगदान बढ़ता है परन्तु कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र का योगदान घटता है .इसका मूलभूत कारण यह है कि कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र के उत्पादक का मूल्य सेवा क्षेत्र या औधोगिक क्षेत्र या औधोगिक क्षेत्र के उत्पादों की तुलना में कम होता है .
अनाजों के सड़ने व महंगें हो रहे खाद पदार्थों और भुखमरी के बढ़ रहे दायरे को देखते हुए इस वर्ष कृषि क्षेत्र में नयी योजनाओं व कार्यक्रमों की उम्मीद की जा रही थी ,हालांकि सरकार ने कृषि में उपजे समस्याओं की नब्ज तो पकड़ ली लेकिन उसकी समस्या के समाधान का कोई प्रयास नहीं किया .वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी द्वारा  इस सन्दर्भ में जो राशी आवंटित की गयी है वो ऊंट के मुंह में जीरा के बराबर है .
आर्थिक समीक्षा के अनुसार २०१० – ११ में कृषि का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान घटकर १४.२ प्रतिशत रहने का अनुमान है ,जिसमें कृषि का भाग १२.३ प्रतिशत ,वानिकी का १.५ प्रतिशत और मतस्य का ०.८ प्रतिशत है .२००४-०५ में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी ) में कृषि का योगदान १.९ प्रतिशत था जिसे देखने से यह ज्ञात हो जाता है कि जीडीपी में कृषि का हिस्सा तेजी से घट रहा है . इसका कारण कुल विकास दर की तुलना में कृषि का पिछड़ना है .
२०११-१२ के बजट और पूर्ववर्ती बजटों में कृषि क्षेत्र के कार्यक्रमों और नीतियों कि समीक्षा करने से स्पष्ट हो जाता है कि इनका स्वरुप त्वरित परिणाम वाला ही रहा है . जिस प्रकार के सुधारात्मक कदम अर्थव्यवस्था के उदारीकरण – वैश्वीकरण हेतु उठाए गए ,उनका कृषि क्षेत्र में सर्वथा अभाव रहा है .दरअसल ,कृषि उपजों की कीमतों में हम जिस तेजी से जूझ रहे हैं ,वह भी कृषि के पिछड़ेपन के कारण पैदा हुई है .कृषि क्षेत्र में ढांचागत हालात खराब होने के कारण उपभोक्ताओं तक खाद वस्तुएं नहीं पहुंच पा  रही हैं और इसलिए कीमत को काबू करने के उपाय कारगर नहीं रहे हैं .
अतः वास्तव में कृषि में हो रहीं समस्याओं को समाप्त करने के लिए आपूर्ति प्रबंधन को दुरुस्त करने और वितरण व्यवस्था की खामियों को खत्म करने के लिए समुचित कदम उठाए जाने की जरूरत है .

Tuesday, April 5, 2011

जन लोकपाल बिल आखिर क्यों ?.....


भारत  में लोकपाल की स्थापना सम्बन्धी  बिल की अवधारणा सर्व प्रथम १९६६ में सामने आई । इसके बाद से ही यह बिल लोकसभा में आठ बार पेश किया जा चुका है किन्तु अभी  तक यह पारित नहीं हो सका । इसके पहले  पूर्व प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल के कार्यकाल में एक बार १९९६  में और अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में दो बार १९९८  और २००१  में इसे लोकसभा में लाया गया था । वर्ष २००४  में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वादा किया था कि जल्द ही लोकपाल बिल संसद में पेश किया जाएगा लेकिन  अब तक सरकार अपने वादे को पूरा नहीं कर सकी  
वास्तव में जन लोकपाल बिल आखिर है क्या जिसके लिए ७२ वर्षीय गाँधीवादी नेता अन्ना हजारे को आमरण अनशन पर बैठना पड़ा . अन्ना हजारे से पहले भी इस वर्ष ३० जनवरी को देश के ६० शहरों में लाखों लोग सड़कों पर इस बिल के लिए ही उतरे थे . आम आदमी जो इससे अनभिज्ञ है और वो इस आन्दोलन में  अपना समर्थन नहीं दे पा रहा है. ऐसे लोगों की संज्ञान के लिए ..भ्रष्टाचार से निपटने का सबसे कारगर रास्ता हो सकता है जन लोकपाल बिल.

सरकार द्वारा तैयार किये गए लोकपाल बिल की चर्चा करें तो इसमें तीन सदस्यीय  लोकपाल होंगे जिसमें सभी रिटायर्ड न्यायाधीश होंगे .चयन समिति में उपराष्ट्रपति ,प्रधानमन्त्री ,दोनों सदनों के नेता पक्ष सहित नेता प्रतिपक्ष और कानून मंत्री व गृहमंत्री शामिल होंगे .मंत्रियों ,सांसदों के विरुद्ध जांच व मुकदमें के लिए लोकसभा व राज्यसभा अध्यक्ष की अनुमति आवश्यक होगी तथा प्रधानमन्त्री  के विरुद्ध जांच की अनुमति नहीं होगी .इस बिल में लोकायुक्त केवल सलाहकार की भूमिका में होंगे अर्थात एफआईआर  से लेकर मुकदमा चलने की प्रक्रिया पर  तथा न्यायाधीशों के विरुद्ध  कारवाई पर  विधेयक मौन है .

सरकार द्वारा तैयार किये गए इस प्रकार के विधेयक से सबसे बड़ी समस्या यह रहेगी  कि  जब चयन समिति में ही भ्रष्टाचार के आरोपियों की सहभागिता होगी तो निसंदेह ईमानदार लोगों के चयन में आशंकाए व्याप्त रहेंगी .न्यायाधीशों की सेवा समाप्ति के पश्चात भी सरकार से उपकृत होने की आशा रहने से निष्पक्षता प्रभावित होगी.इसके साथ ही केजी बालाकृष्णन जैसे न्यायाधीशों  के विरुद्ध कार्रवाई संभव नहीं हो सकेगी और तो और जेएमएम सांसद खरीद कांड,बोफोर्स ,२ जी स्पक्ट्रम जैसे मामलों में भी प्रधानमन्त्री की भूमिका की जांच नही हो सकेगी . देश पहले ही २ जी स्पक्ट्रम और राष्ट्रमंडल खेलों में हुए  भ्रष्टाचार में सरकार की संलिप्तता से त्रस्त है ,ऐसे में सरकार द्वारा बनाये गए ऐसे  विधेयक से देश का अस्तित्व गुमनामी के अंधेरों में चला जायेगा .

वास्तव में जिस बिल की आवश्यकता है वह इस प्रकार से है -
• अध्यक्ष समेत दस सदस्यों वाली एक लोकपाल संस्था होनी चाहिए.
भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करने वाली सीबीआइ के हिस्से को इस लोकपाल में शामिल कर दिया जाना चाहिए.
सीवीसी और विभिन्न विभागों में कार्यरत विजिलेंस विंग्स का लोकपाल में विलय कर दिया जाना चाहिए.
लोकपाल सरकार से एकदम स्वतंत्र होगा.
नौकरशाह, राजनेता और जजों पर इनका अधिकार क्षेत्र होगा.
बगैर किसी एजेंसी की अनुमति के ही कोई जांच शुरू करने का इसे अधिकार होगा.
जनता को प्रमुख रूप से सरकारी कार्यालयों में रिश्वत मांगने की समस्या से गुजरना पड़ता है। लोकपाल एक.
अपीलीय प्राधिकरण और निरीक्षक निकाय के तौर पर केंद्र सरकार के सभी कार्यालयों में कार्रवाई कर सकेगा.
विसलब्लोअर को संरक्षण प्रदान करेगा.
लोकपाल के सदस्यों और अध्यक्ष का चुनाव पारदर्शी तरीके से किया जाना चाहिए.
लोकपाल के किसी अधिकारी के खिलाफ यदि कोई शिकायत होती है तो उसकी जांच पारदर्शी तरीके से एक महीने की भीतर होनी चाहिए.


अन्ना हजारे ने आमरण अनशन पर बैठ अपने वक्तव्य के दौरान एक बात कही कि ...सरकार किसी अन्ना से नहीं बल्कि गिरने से डरती है. शायद अब वो समय आ गया है कि इन सत्ताधारियों को लोकतंत्र का असली अर्थ समझाया जाये .लेकिन अकेले गांधी भी कुछ न कर सकते अगर उन्हें देश की जनता का साथ न मिला होता ,इसलिए अन्ना हजारे को भी देश की युवा शक्ति अपना समर्थन दे ताकि पूर्ण रूप से नहीं तो कम से कम कुछ हद तक इस भ्रष्टाचार रूपी रावन को देश से बाहर खदेड़ने में अपना सहयोग देकर , कुछ अच्छा कर सके .


वर्ल्ड कप का खुमार ..राजनीति का प्रचार

 २ अप्रैल २०११ का दिन क्रिकेट के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जायेगा .कपिल देव की कप्तानी में १९८३ में सर्वप्रथम भारतीय क्रिकेट टीम नेक्रिकेट विश्व कप जीत कर विश्व में भारत का नाम रोशन किया था .उसके बाद २००३ में भारतीय क्रिकेट टीम के तात्कालिक  कप्तान सौरभ गांगुली ने विश्व कप के फ़ाइनल  तक अपनी टीम को पहुंचाया लेकिन जीत दर्ज करा पाने में असफल रहें .लेकिन २८ वर्षों के अथक प्रयास के बाद भारतीय क्रिकेट टीम के शेरों ने यह साबित कर दिया की देर जरुर है मगर अंधेर नहीं ..
भारतीय क्रिकेट टीम के  वर्तमान कप्तान महेंद्र सिंह धोनी  की  कप्तानी में मुंबई के मैदान में भारतीय क्रिकेट टीम ने २ अप्रैल २०११ को श्रीलंकाई क्रिकेटरों को धुल चटा कर विश्व कप के फ़ाइनल  में अपनी जीत दर्ज कराई . इस जीत का श्रेय इकलौते  धोनी को ही नहीं बल्कि उन सभी भारतीय खिलाड़ियों को जाता है ,जिन्होंने इस विश्व कप में सहभागिता निभायी .उनकी इस जीत में उन सभी भारतीयों का भी पूरा योगदान रहा जिन्होंने इस जीत के लिए सच्चे दिल से प्रार्थनाएं की थी . भारतीय क्रिकेट टीम की इस ऐतिहासिक  जीत के साथ ही पूरे देश में हर्ष  की लहर दौड़ पड़ी ,लेकिन कुछ राजनीतिक पार्टियों ने  इस अवसर पर  भी अपनी राजनीतिक रोटी सेकने का पूरा प्रयास किया .जहाँ एक ओर देश का युवा वास्तव में इस खुशी को अपने – अपने तरीके से मनाने में लगा था,वहीँ सत्ता में बैठे कुछ लोग सड़कों पर इस प्रकार से अपनी पार्टी के झंडे हाथ में लिए घूम रहें थे कि मानों उन्हें इससे सस्ता प्रचार का माध्यम नहीं मिल सकता .
देश की राजनीति में स्वयं को युवाओं का प्रेरणा मानने वाले राहुल गाँधी की बात करें तो वो खेल के मैदान में बिना किसी सुरक्षा के दर्शकों के बीच बैठ कर अपनी राजनीतिक  साख को इस प्रकार से मजबूत करने का प्रयास कर रहें थे कि मानों जैसे लोगों को दिखाना चाहते हों कि वह एक सच्चे राष्ट्रभक्त हैं और उन्हें अपने देश में किसी सुरक्षा की  आवश्यकता नहीं है,वह कहीं भी स्वछन्द रूप से विचरण कर सकते हैं .अगर वास्तव में यह सच है तो यह प्रक्रिया सिर्फ खेल के मैदान तक ही क्यों सीमित  है ?इस प्रकार से खेल का आनंद लेना और ख़ुशी  का इजहार करना क्या वास्तव में राष्ट्रवादी विचारधारा का परिचायक होना है या गिरती राजनीतिक साख को बचाए रखने के लिए सस्ते प्रचार का माध्यम है .
 हालांकि  वास्तव में यह जीत हर भारतवासी के लिए गर्व की बात रही  है लेकिन भारतीय टीम के वर्ल्ड कप जीतने के बाद युवाओं ने जिस तरह अपनी ख़ुशी का इजहार किया, उसका किसी भी शब्द में वर्णन नहीं किया जा सकता . क्योकि यह किसी राजनीतिक पार्टी द्वारा किसी रैली में बुलाये गए राजनीतिज्ञों द्वारा जुटाई गयी भीड़ नहीं थी ,बल्कि सच्चे दिल से क्रिकेट वर्ल्ड कप भारत जीते, इसके लिए दिन – रात प्रार्थना करने वालों की स्वयं से ख़ुशी मनाने का जोश था . लेकिन कुछ राजनीतिज्ञ यहां भी अपना राजनीतिक हथकंडा अपनाने से बाज नहीं आये . वर्ल्ड कप की जीत में भी राजनीतिक पार्टियों के झंडे बड़े अच्छे ढंग से लहरा रहे थे .
 सोनिया जी भी ख़ुशी का इज़हार करने के लिए कांग्रेस का झंडा हाथ में लिए गाड़ी  लेकर दिल्ली की सड़कों पर उतर आई, जो जीत की ख़ुशी कम और कांग्रेस के प्रचार करने का ढंग अधिक दर्शा रहा था . इसे वास्तव में जीत की ख़ुशी का इजहार कहें या आगामी आने वाले चुनावों की दृष्टी से किया जाने वाला प्रचार. आखिर क्यों रैलियों में जब यही नेता चलते हैं तो इन्हें भारी तादात में सुरक्षा कर्मियों व बुलेटप्रूफ गाड़ियों की आवश्यकता होती है और इसके विपरीत खेल के मैदान में बिना किसी सुरक्षा के रहना पसंद करते हैं ? यह प्रयास तो यही दर्शाता है कि शायद अभी भी यह राजनीतिज्ञ सोचते है कि इस देश की जनता इतनी भोली है कि उसे इन सस्ते प्रचार के माध्यम से बेवकूफ बनाया जा सकता है,लेकिन वह समय अब बीत चुका जब जनता इन नेताओं की राजनीतिक प्रोपेगंडों के जाल में फंस कर लाचार सी बनी रह जाती थी .इसका सीधा उदाहरण बिहार में हुआ सत्ता परिवर्तन रहा है .
इसलिए इन राजनीतिज्ञों को अपनी साख बचानी है, तो वास्तव में देश के विकास की ओर ध्यान दे , देश के सामने सबसे बड़ा खतरा बन रहे जम्मू-कश्मीर की ओर ध्यान दे और अपनी विदेश नीतियों की तरफ ध्यान दे . इस प्रकार से किये जाने वाले सस्ते प्रचार के माध्यम से अब कोई भी राजनीतिक पार्टी अपने साख को नही बचा सकेगी क्योकि देश की जनता अब जागरूक हों चुकी है. वह किसी राजनीतिक पार्टी को सत्ता पर बिठाना जानती है तो गिराना भी.  इसके लिए आवश्यक है कि इन राजनीतिक पार्टियों को ऐसे सस्ते प्रचारों के माध्यम को छोड़कर वास्तव में देश के विकास के लिए कुछ कार्य करने चाहिए.

Friday, April 1, 2011

क्रिकेट के मैदान पर राजनीति का खेल


३० मार्च २०११ का   दिन भारतीय क्रिकेट की दुनिया में एक ऐतिहासिक दिन बन गया   है .भारतीय क्रिकेट टीम के जीत की हुंकार उसके टास जितने के समय से ही भारतवासियों को सुनायी देने लगी थी .यह खेल हर भारतवासी के लिए उतना  ही महत्वपूर्ण था  ,जितना  की पकिस्तान सेखेल देखने आये प्रधानमन्त्री गिलानी के लिए था .यह मैच केवल एक खेल ही नहीं था बल्कि भारत पाक के बिगड़े  सम्बन्धों को सुधारने की एक महत्वपूर्ण कड़ी भी थी ,जिसको खेल के  मैदान  पर डटे रहे भारतीय खिलाड़ियों ने भी पूरी ईमानदारी से निभाया,लेकिन राजनीति की रोटी इस खेल पर भी सिकते हुए दिखाई दे गयी .भारतीय खिलाड़ियों के चौके -छक्के के बीच कूटनीति के मैदान पर दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की वार्तालाप में भी जमकर रन बटोरने का प्रयास किया गया , आपसी सदभावना इस प्रकार की थी कि मीडिया को भी इस वार्तालाप पर कोई टिपण्णी करने कि पूर्व में ही मनाही थी . २६ नवम्बर २००८ मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के बाद पहली बार भारत में हुए दोनों प्रधानमंत्रियों की यह मुलाक़ात लगभग डेढ़ घंटे तक चली . हालांकि इस मुलाकात के दौरान भरोसा बहाली का नया दौर शुरु करने की रजामंदी दोनों तरफ दिखाई दी . 
पंजाब की धरती पर पंजाबी मूल के दोनों नेताओं द्वारा आपसी तालमेल इस कदर देखने को मिला कि दोनों ने शायद ही एक -दूसरे से विपरीत रुख किया हो .ऐसे में यह आशंका जताया जाना कि क्रिकेट में कम दिलचस्पी रखने वाले मनमोहन सिंह के लिए भारतीय क्रिकेटरों के खेल प्रदर्शन से अधिक जोर कूटनीतिक स्कोर बढ़ाने पर रहा होगा ,गलत नहीं है . क्रिकेट के मैदान से लेकर दावत की मेज तक चर्चाओं का बाजार गर्म रहा .सप्रंग अध्यक्ष सोनिया गाँधी ,कृषि मंत्री शरद पवार ,पंजाब के राज्यपाल शिवराज पाटिल सहित कुल ३० लोग इस दावत में शामिल हुए थे .
अथिति देवो भवः को वास्तव में चरितार्थ अगर किसी देश ने किया है ,तो वो भारत है ,इस चीज को केंद्र सरकार ने अपने इस राजनीतिक खेल में दिखाने का पूरा प्रयास किया है ,लेकिन क्या यह वास्तव में सफल सिद्ध हो सकेगा ? ऐसा इसलिए क्योकि इसके पूर्व में भी जब  किसी समझौते की बात हुई है ,तो पहल भारत ने ही की है .इसके परिणामस्वरुप हमें जो मिला वह सबके संज्ञान में है . माना जा रहा है कि इस मुलाकात के बाद जहां दोनों देशों के मध्य प्रेम और सौहार्द कि भावना जहां बढ़ेगी वहीँ  दूसरी ओर दोनों देशों कि सरकार द्वारा साझा व्यापार कमीशन , सीमापार आवाजाही बढ़ाने एवम व्यापार बढ़ाने के लिए रियायतें भी दी जा सकती हैं .इन सबके पीछे सोचने लायक विषय यह है कि जहां एक ओर गिलानी के बेटे कि विदेश में सर्जरी चल रही है ,वहीं दूसरी ओर वे वहां उपस्थित न होकर भारत में मैच देख रहे थे . एक बहुत पुरानी कहावत है कि …’दूध का जला मट्ठा भी फूंक कर पीता है कहीं ऐसा न हो कि फिर किसी कारगिलकी शुरुवात होने वाली हो और हम अथिति देवो भवः के सुर ही अलापते रहें .क्योकि ऐसा प्रमाणित भी है कि ..सांप को कितना भी दूध पिलाया जाये कभी न कभी वो डसेगा ही .ऐसा इसलिए क्योकि जब युद्ध होता है तो एक भी सत्ताधारी उसमें शहीद नहीं होता ,उसमें शहीद होते हैं माँ भारती के वीर सपूत इस देश के जवान सैनिक और उनकी शहादत का बोझ आजीवन उठाता है उनका परिवार . इसलिए सत्ता पर आसीन नेताओं को इसे ध्यान में रखते हुए ही कदम उठाना  चाहिए और आपसी सौहार्द और भाईचारे के बीच कारगिल में शहीद हुए जवानों को भी स्मरण में रखना चाहिए .