Sunday, March 27, 2011

मनरेगा खटाई में .....


   महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनरेगा)  अधिनियम  , एक भारतीय रोजगार गारंटी योजना है . जिसे २५ अगस्त २००५ को विधान द्वारा अधिनियमित किया गया था .यह योजना प्रत्येक वितीय वर्ष में किसी भी ग्रामीण परिवार के उन वयस्क सदस्यों को १०० दिन का रोजगार उपलब्ध कराती है जो प्रतिदिन १०० रुपये की सांविधिक न्यूनतम मजदूरी पर सार्वजनिक कार्य -सम्बंधित अकुशल मजदूरी करने के लिए तैयार हैं .२०१० -११ वितीय वर्ष में इस योजना के लिए केंद्र सरकार का परिव्यय ४० ,१०० करोड़ रुपये है .इस  में रहने अधिनियम को ग्रामीण लोगो की क्रय शक्ति बढ़ाने के उद्देश्य से शुरू किया गया था .मुख्य रूप से ग्रामीण भारत में रहने वाले लोगों  के लिए अर्ध -कौशलपूर्ण या बिना कौशलपूर्ण कार्य ,चाहे वे गरीबी रेखा से नीचे हों या न हों ,नियत कार्य बल का करीब एक तिहाई महिलाओं से निर्मित है .शुरू में इसे राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा ) कहा जाता था ,लेकिन २ अक्टूबर २००९ को इसका नाम परिवर्तित कर  महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनरेगा)  अधिनियम कर दिया गया .

प्रक्रिया : इस  योजना  से लाभान्वित होने के लिए ग्रामीण परिवारों के वयस्क सदस्य , ग्राम पंचायत के पास एक फोटो के साथ अपना नाम ,उम्र और पता जमा करते हैं .जांच के बाद पंचायत घरों को पंजीकृत करता है और एक जॉब कार्ड प्रदान करता है .जॉब कार्ड में पंजीकृत वयस्क सदस्य का ब्यौरा और उसकी फोटो शामिल होती है .एक पंजीकृत व्यक्ति , या तो पंचायत या कार्यक्रम अधिकारी को लिखित रूप से (निरंतर काम के कम से कम चौदह दिनों के लिए ) काम करने के लिए एक आवेदन प्रस्तुत कर सकता है .आवेदन दैनिक बेरोजगारी भत्ता आवेदक को भुगतान किया जायेगा .इस अधिनियम के तहत पुरुषों और महिलाओं को सामान वेतन देने की योजना अन्तर्निहित है ,इनमे किसी प्रकार का भेद भाव नही है .

इस प्रकार मनरेगा यह दर्शाता है कि कार्य को ग्रामीण विकास गतिविधियों के एक विशिष्ट सेट की ओर उन्मुख होना चाहिए जैसे जल संरक्षण ,वनीकरण ,बाढ़ नियंत्रण ,ग्रामीण संपर्क तंत्र और सुरक्षा जिसमें शामिल है तटबंधों का निर्माण ,वृक्षारोपण आदि .  जबकि दूसरी ओर भारत का नियंत्रक एवम महालेखा परीक्षक (सीएजी)      
ने मनरेगा के इस अधिनियम के कार्यान्वयन में  बड़ी कमियों को पाया है .इस योजना को फरवरी २००६ में २०० जिलों में शुरू किया गया था और अंत में ५९३ जिलों तक विस्तारित किया गया.२००८ -०९ के दौरान            ४,४९,४०,८७० ग्रामीण परिवारों को नरेगा के तहत रोजगार उपलब्ध कराया गया ,जहां प्रत्येक परिवार में ४८ कार्यदिवस का राष्ट्रीय औसत था .एनआरईजीए के तहत सभी के लिए १०० दिन का रोजगार उपलब्ध कराने में सरकार असफल साबित हुई . 
इस योजना की अब तक काफी आलोचनाएं हो चुकी है, और तर्क दिया गया कि यह योजना भी  गरीबी उन्मूलन की अन्य योजनाओं से अधिक प्रभावी नहीं है .मनरेगा दुनिया में अपनी तरह की सबसे बड़ी पहलों में से एक है .वर्ष २००६-०७ के  लिए राष्ट्रीय बजट ११३ बीलियन रुपये था (लगभग यूएस$ २ .५ bn और सकल घरेलू उत्पाद का लगभग ०.३ % )और अब पूरी तरह चालू होकर इसकी लागत २००९ -१० वित्तीय वर्ष में ३९१ बीलियन रुपये हो गया .बेल्जियम में जन्मे और दिल्ली  स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स के एक अर्थशास्त्री डॉ . ज्यां द्रेज ने इस सन्दर्भ में सुझाव था कि इसका वित्त पोषण उन्नत कर प्रशासन और सुधारों से किया जा सकता है जबकि अभी तक कर-जीडीपी अनुपात वास्तव में गिरता जा रहा है ,ऐसी आशंका भी जतायी जा रही है कि इस योजना कि लागत जीडीपी का ५ प्रतिशत हो जाएगी .इसकी आलोचनाओं में एक कड़ी और भी जुडी है कि सार्वजनिक कार्य योजना का अंतिम उत्पाद (जैसे - जल संरक्षण ,भूमि विकास ,वनीकरण ,सिंचाई प्रणाली का प्रावधान ,बाढ़ नियंत्रण ,सड़क निर्माण ) असुरक्षित है ,जिन पर समाज के धनी वर्ग का अधिपत्य हो रहा है .पूर्व में मध्य प्रदेश में नरेगा के एक निगरानी अध्ययन में दिखाया गया कि इस योजना के तहत कि जा रहीं गतिविधियाँ सभी गावों  में  कमोबेश मानकीकृत हो गयी थी,जिसमें स्थानीय परामर्श नहीं के बराबर था .आगे कि चिंताओं में भी यह तथ्य शामिल है कि स्थानीय सरकार के भ्रष्टाचार के कारण समाज के कुछ ख़ास वर्गों को बाहर रखा जाता है .ऐसा भी पाया गया है कि स्थानीय सरकारों ने काम में लगे व्यक्तियों की वास्तविक संख्या से अधिक नौकरी कार्डों का दावा किया ताकि आवश्यकता से अधिक फंड को हासिल किया जा सके ,जिसे फिर स्थानीय अधिकारीयों द्वारा गबन कर लिया जाता है .
ऐसे में ग्रामीण विकास के उत्थान के लिए बनाये जा रहे ऐसी योजनाएं कहां तक सफल साबित होगी ? क्या देश में गरीब हमेशा भुखमरी की मौत ही मरता रहेगा ? इन सारे प्रश्नों का उत्तर भविष्य कालीन ही रह जायेगा या वर्तमान सरकार इस सन्दर्भ में कोई ठोस कदम उठायेगी . अब तो सिर्फ यह देखना है .

Saturday, March 12, 2011

जीवन रक्षा के लिए खाद्य सुरक्षा

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् से 'खाद्य सुरक्षा ' भारत में एक राष्ट्रीय उद्देश्य बन गया है .पूर्व में जहां खाद्य    सुरक्षा से  तात्पर्य आमजन को रोटी उपलब्ध कराने मात्र से था , वहीँ समय में खाद्य सुरक्षा से आशय आर्थिक ,भौतिक और सामाजिक स्थितियों की पहुंच ,संतुलित आहार ,स्वच्छ वातावरण ,पीने योग्य जल एवम प्राथमिक स्वास्थ्य के रखरखाव तक जा पहुंचा है . भारतीय संविधान की धारा ४७ के अंतर्गत भी यह प्रावधान है की सरकार यह सुनिश्चित करे कि आहारों कि पौष्टिकता में वृद्धि करने तथा सभी का जीवन स्तर ऊपर उठाने व प्राथमिक स्वास्थ्य में सुधर लेन जसे काम उसकी प्राथमिकताओं में होंगे .इसके अंतर्गत खाद्य सुरक्षा  में पौष्टिक व कैलोरी युक्त खाद्यानों कि आपूर्ति स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कराई जाएगी .

केंद्र सरकार १ अप्रैल २०११ से नयी व्यवस्था लागू करने की तैयारी में है . इसके तहत पिछड़े जिलों और ब्लाक में रहने वाले गरीबों ,अनुसूचित जातियों और जनजातियों के परिवारों को प्रत्येक माह ३ रुपये किग्रा. की दर से चावल व २ रुपये प्रति किग्रा. की दर से गेहूं उपलब्ध कराया जाएगा. प्रथम चरण में यह व्यवस्था देश के ४६ फीसदी ग्रामीणों और २८ फीसदी शहरी परिवारों को देने की योजना है .प्रति परिवार हर माह ३५ किग्रा. अनाज मुहैया कराये जाने के बाद उसकी मॉनिटरिंग की जाएगी .ग्रामीण सहित शहरी क्षेत्रों के झुग्गी ,झोपड़ियों में रहने वालों को भी हर माह ३ रुपये प्रति किग्रा. की दर से ३५ किग्रा. अनाज  दिया जायेगा .

अब तक जो बातें कही गईं हैं , वह आगामी योजनाओं के अंतर्गत है किन्तु वर्तमान समय में वास्तविकता यह है की दुनिया का पेट भरने वाले किसान को आज खुद दो वक्त की रोटी के भी लाले पड़ रहे हैं .बाढ़ ,सूखा,अकाल जैसी अनेक प्राकतिक आपदाओं ने उसकी कमर तोड़ दी है .देश के लगभग ८ करोड़ किसान खेती छोड़कर शहरों में मजदूरी कर रहें हैं ,वहीँ एक ओर ३० करोड़ किसान कर्जों के जाल में फंसकर बदहाली का शिकार हो रहें हैं .किसानों की इस दयनीय स्थिति के मूल कारणों में एक प्रमुख कारन है खेती में बढती लगत और घटता लाभ .

इस वास्तविक तथ्य से हर व्यक्ति भली भांति परिचित है कि ६० के दशक की हरित क्रांति ने यधपि देश को खाधान की दिशा में आत्मनिर्भर  बनाया किन्तु इसके दूसरे पहलु पर गौर करें तो यह भी वास्तविकता है कि खेती में अंधाधुंध उर्वरकों के प्रयोग से जल स्तर में गिरावट के साथ मृदा कि उर्वरता भी प्रभावित हुई और एक समय के पश्चात् खाधान उत्पादन न केवल स्थिर हो गया बल्कि प्रदूषण में भी बढ़ोतरी हुई है ,जो कि स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर खतरे के रूप में है .एक अनुमान के अनुसार किसान अपनी उत्पादित फसल का २५ - ४० प्रतिशत ही उपयोग कर पते हैं .  भारत में प्रतिवर्ष ६०० मिलियन टन कृषि अवशेष पैदा होता है ,इसमें से अधिकांश अवशेषों को किसान अपनी अगली फसल के खेत तैयार करने हेतु खेत में ही जला देते हैं ,जबकि इसका उपयोग जैविक खाद को तैयार करने के लिए आसानी से किया जा सकता है .

खाद्य सुरक्षा हेतु निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देने कि आवश्यकता है :

१. बीज अधिनियम की  आवश्यकता - भारतीय कृषि शोध परिषद् के अनुसार ' सन २००९ के दौरान देश में कुल १० करोड़ टन चावल का उत्पादन हुआ था .सन २०२० में घरेलू मांग को पूरा करने के लिए देश को 13 करोड़ टन चावल की आवश्यकता होंगी ,वहीं १० वर्षों के पश्चात् ११ करोड़ टन गेहूं की जरुरत होगी. इसके साथ ही देश में वर्ष २०२०  तक दलहन और तिलहन की भी खासी कमी महसूस की जाएगी . इस दौरान दालों की मांग में १४० फीसदी और तिलहन की मांग में २४३ फीसदी की बढ़ोत्तरी हो जाएगी. पूर्व में परिषद् ने अपने चेतावनी भरे शब्दों में भी कहा है कि सन २०२० तक सूखा और दूसरे कारणों से चावल की खेती में १५ - ४२ फीसदी तक की कमी हो सकती है .इसलिए अब बीज अधिनियम को पारित करने की जरुरत समझी जा रही है .अधिनियम में सभी किस्मों के बीजों का अनिवार्य पंजीकरण प्रावधान ,बीज प्रमाणन का परिचालन और नेशनल सीड बोर्ड की स्थापना जैसे कई प्रस्ताव रखे गए हैं .

२.खाद्यान्न बजट एकीकृत हो - वर्तमान परिवेश में खाद्यानों की स्थाई आपूर्ति व्यवस्था बनाए जाने की आवश्यकता है . इसके बिना प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम भी अपने उद्देश्यों की पूर्ति करने में विफल साबित होगा .इस एकीकृत खाद्यान्न बजट की अवधारणा में दीर्घकालिक खाद्य सुरक्षा और मूल्य स्थिरता समाहित है ,जिनके प्रति जनसाधारण सदैव आशंकित रहता है .इसलिए पूरे देश ध्यान में रखते हुए एकीकृत खाद्यान्न बजट की अवधारणा पर गंभीरता से विचार करना होगा .इसके लिए एकीकृत बजट की अवधारणा के तहत निजी, सहकारिता और सार्वजनिक क्षेत्रों द्वारा किए जा रहे आयात को एक ही एजेंसी के अंतर्गत विनियमित करना होगा, ताकि समय पर मांग और आपूर्ति के अंतर को पाटा जा सके.

३. बफर स्टॉक में वृद्धि :- 
वैश्विक आर्थिक रुझानों व शोध से जुड़ी संस्था 'श्नोमूरा ग्लोबल इकोनोमिक्स' के अनुसार जिन खाद्य जिंसों का बफर स्टॉक नहीं रखा जाता, उनकी जमाखोरी होने लगती है. 'अभिजीत सेन समिति' की सिफारिश में भी यह कहा गया है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में खाद्यान्नों, दालों, चीनी इत्यादि की उपलब्धता के लिए विभिन्न वस्तुओं के भण्डारण व आयात का पूर्व अनुमान लगाना आवश्यक है. ऐसे में बफर स्टॉक बनाए जाने की दिशा में पहले ही रणनीति बनाये जाने की ज़रूरत है. इसके साथ ही खाद्यान्न के वायदा बाजार पर भी रोक लगानी होगी. 

अध्ययनों से यह निष्कर्ष निकलकर सामने आया है कि देश में जब से कृषि जिंसों की कमोडिटी एक्सचेंज द्वारा वायदा कारोबार शुरू किया गया, तभी से खाद्यान्नों की कीमतों में बढ़ोत्तरी होती गई. 

कृषि मंत्रालय की ओर से सन २०१२ तक देश में खाद्यान्न की मांग में २५० करोड़ टन की वृद्धि का अनुमान लगाया गया है. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए गेहूं का उत्पादन ८, चावल का १० और दालों का २ मिलियन टन बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है. सरकार की ओर से इस लक्ष्य को पाने के लिए २५ हज़ार करोड़ रुपये के विशेष पैकेज की घोषणा की गई है. यदि हम इस लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल रहें तो निश्चित रूप से देश से गरीबी दूर करने की दिशा में एक सफल प्रयास होगा और इसके माध्यम से खाद्य सुरक्षा में भी सहायता प्राप्त हो सकेगा.