Saturday, August 13, 2011

बदहाल है पत्रकारिता की रीढ़ "श्रमजीवी पत्रकार"


मीडिया को देश का चौथा स्तम्भ कहा जाता है लेकिन वर्तमान समय में इस स्तम्भ की स्थिति बेहाल होती नजर आ रही है . कुछ मीडियाकर्मी तो आजीवन इस क्षेत्र को अपनी तपभूमि मान कर खुद को तपा जाते हैं  और कुछ परिस्थितियों के वशीभूत होकर स्वयं के आत्मसम्मान को गिरवी रख देते हैं .आज देश में हो रहे भ्रष्टाचारों में जब किसी मीडियाकर्मी का नाम आता है तो लोग स्तब्ध हो जाते हैं कि अब मीडिया भी इस ओर अग्रसारित हो चला है  और कुछ एक लोगों की वजह से पूरा मीडिया समुदाय सवालियां निशानों के घेरे में आकर खड़ा हो जाता है .
गौर करने वाली बात है कि देश भर के टीवी न्यूज़ चैनलों और अखबारों में क्षेत्रीय(मंडल,जिला ,तहसील और थाना ) स्तर पर कार्य करने वालों  की संख्या लगभग लाखों में है जिनमें कुछ अवैतनिक तो कुछ प्रति खबर के हिसाब से रखे जाते हैं .इस प्रकार से बड़े न्यूज़ चैनलों में कार्यरत रिपोर्टरों  को  १००० रुपये प्रति पॅकेज स्टोरी और ५०० रुपये प्रति छोटी खबर के लिए दिए जाते हैं. इसी क्रम में नए और मझले स्तर के न्यूज़ चैंनल पॅकेज स्टोरी के लिए 750 रुपये और छोटी ख़बरों  के लिए २५० रुपये मात्र रिपोर्टरों को देते हैं.श्रमजीवी पत्रकारों के विपरीत स्टाफर पत्रकारों का वेतन संस्था द्वारा निर्धारित होता है .  कभी कभी श्रमजीवी पत्रकारों को ये तनख्वाह ६ माह या १ वर्ष बाद प्राप्त होती हैकिन्तु इनके कार्य अवधि की बात करें तो श्रमजीवी पत्रकारों को २४ घंटें अपने काम की चिंता होती है .यह हमेशा नयी नयी घटनाओं के तथ्यों की खोज में लगा रहता है .इसके विपरीत जो मीडिया में स्टाफर पत्रकार होता हैउसकी कार्य अवधि सप्ताह में ५ दिन और  प्रतिदिन ८ घंटे की होती है .लेकिन यह स्थिति बड़े और प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में होती है किन्तु नए व मध्यम स्तर के चैनलों में कहीं - कहीं  कार्य अवधि ६ -७ दिन भी होती है .
मीडिया मैनेजर यह बखूबी जानते हैं  कि एक या दो श्रमजीवी पत्रकार के संस्था छोड़ देने से संस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योकि यहाँ बेरोजगारी का यह आलम है कि अगर एक जाएगा तो सौ लाइन में खड़े हैं . इस कारण इनका हर प्रकार से शोषण किया जाता है.श्रमजीवी पत्रकारों की ऐसी स्थिति के बाद अगर कल्पना की जाए कि वह अपने परिवार का खर्च कैसे चलाता होगा, तो यह चिंता का विषय है .एक श्रमजीवी पत्रकार भी इंसान होता हैउसे भी अपने परिवार का भरण पोषण करना होता है, किन्तु जब ऐसी  स्थितियां  व्याप्त होंगी  तो वह किस  प्रकार से अपना व अपने परिवार का बोझ उठा पाने में समर्थ होगा. अब अगर इसे दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाए तो २-जी स्पक्ट्रम जैसे बड़े घोटालों में भी मीडिया के चर्चित  चेहरे ही सबके सामने आये, कहने का तात्पर्य यह है कि मुफलसी के दौर में भी जीने की चाह रखने वाला श्रमजीवी पत्रकार इन सब के बावजूद भी अपने कर्तव्यों की अवहेलना नहीं करता है. 
दुनिया भर की परेशानियों और दुर्व्यवस्थाओं का पर्दाफाश करने वाला श्रमजीवी पत्रकार भी कभी - कभी मजबूर होता है किसी घटना के वास्तविकता को प्रदर्शित करने में , ऐसा तब होता है जब उसके पेशे से सम्बंधित बड़े स्तरीय लोग किसी भ्रष्टाचार के मामले में संलिप्त पाए जाते हैं . कहते है कि ' पेट की भूख इंसान से सब कुछ करवा सकती है ' और अगर वो खुद की भूख को मार भी दे तो क्या ..,अपनों की भूख को कैसे मार सकता है . अब अगर बात इनके प्रश्रय की करें तो इलेक्ट्रोनिक मीडिया में काम कर रहें श्रमजीवी पत्रकारों का तो अभी तक कोई संघ ही नहीं ऐसा बना जो इनके समस्याओं को कुम्भकर्णी नीद में सो रहे सरकार के कानों तक पहुंचा सके. आज़ादी के पूर्व से लेकर अबतक प्रेस की स्वतंत्रता पर पाबंदियों के लिए न जाने कितने कानून बने और टूटे मगर आजतक इन श्रमजीवी पत्रकारों के समस्याओं के समाधान हेतु कोई कानून नहीं बन सका और न ही वर्तमान में कोई कानून प्रस्तावित है . 
आज हर बुद्धजीवी समस्याओं को गिनाने और लम्बे चौड़े भाषण देने के लिए आतुर रहता है , लेकिन इन समस्याओं का निवारण करने के लिए कोई भी आगे आने में स्वयं को असमर्थ मान चुप्पी साधे बैठ जाता है . हम कहते तो जरुर है कि हम प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जीवन यापन कर रहें है ' जहां प्रजा राजा से भी ऊपर होता है, लेकिन वर्तमान में सरकार द्वारा हो रहे दमन की नीतियों को देखते हुए यह कहना की देश में प्रजातंत्र है ...क्या प्रासंगिक है?. जब रक्षक ही भक्षक बन जायेंगे तो ये श्रमजीवी पत्रकार कहां जायेंगे?...