Saturday, April 21, 2012

बदलते स्वरूप में सिनेमा व उसकी पत्रकारिता


 सामाजिक घटनाक्रमों के यथार्थ स्वरूप को चलचित्रों के माध्यम से प्रस्तुत करने की विधा सिनेमा है। समय के साथ-साथ इसके स्वरूप में भी परिवर्तन होते रहे हैं। कल तक जो सिनेमा पारिवारिक विघटन, भूख, गरीबी, बेरोजगारी, विपन्नता, जातिवाद, सामंतवाद एवं राजनीति की सड़ी-गली व्यवस्था को चलचित्रों के माध्यम से पर्दे पर प्रदर्शित करता था, वही सिनेमा आज वैश्वीकरण से प्रभावित होकर नग्नता, फूहड़ता आदि को पर्दे पर दिखा रहा है। सिनेमा में आए इस परिवर्तन को भारतीय मीडिया ने भी आत्मसात कर लिया है। कल तक सिनेमा की रिपोर्टिंग करने वाला पत्रकार सिनेमा के उन पहलुओं को उभारता था, जिससे वास्तव में पाठक या दर्शक अनभिज्ञ थे, किन्तु वर्तमान में बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव ने पत्रकारिता के उस भाव को बाजार में बेच दिया है। इसका प्रभाव फिल्मों के प्रदर्शित होने से पूर्व मीडिया द्वारा उस पर होने वाली चर्चाओं और उसे दिये गये रेटिंग प्वांइट्स में साफतौर पर नजर आता है।


सिने जगत आज हर युवा वर्ग की पसन्द है। इसलिए सिर्फ फिल्में ही नहीं बल्कि फिल्मी हस्तियां और उनसे जुड़ी खबरों को भी लोग वर्तमान दौर में काफी रूचि से पढ़ते हैं। इसके पीछे एक कारण और भी प्रतीत होता है कि भाग-दौड़ की जिन्दगी में जहां हर व्यक्ति तनावपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है, वहां उसे कुछ ऐसे साधन की चाह होती है जो उसे इन सब से थोड़ा दूर ले जा सके। आम आदमी को क्षणिक सुख प्रदान करने के लिए मीडिया द्वारा निभायी गई यह भूमिका सराहनीय कही जा सकती है, परंतु आज उसका स्तर जितना गिर गया है, वह सुख प्रदान करने से हट कर मनुष्य की वासनालोलुपता का व्यवसाय करने तक पहुंच गया है।

बात अगर फिल्मों की रिपोर्टिंग की करें तो जितना पुराना भारतीय फिल्म का इतिहास है उतना ही पुराना इतिहास फिल्मों की रिपोर्टिंग का भी है। 1932 में जब पहली सवाक फिल्म आलमआराको पर्दे पर प्रदर्शित किया गया तो उस समय पर्दे पर बोलते व चलते लोगों को देखने के लिए काफी भीड़ जुट जाती थी। धीरे-धीरे लोगों के बीच फिल्मों को लेकर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया। कोई कहता कि यह सब चित्र नहीं जादू है, तो किसी के विचार से यह सब पर्दे के पीछे बैठा जादूगर करता है। फिल्मों से जुड़े ऐसे कई सवालों के प्रश्न लोग स्वयं ही उठाते और स्वयं ही इन प्रश्नों का हल निकाल लेते थे, किन्तु कोई भी व्यक्ति पूर्णतया संतुष्ट नहीं हो पाता था। इन सभी उठते प्रश्नों के महाजाल और फिल्मों के प्रति समाज में व्याप्त हो रही भ्रामक जानकारियों को देखते हुए श्री लेखराम के दिमाग में आया कि यदि लोगों के मस्तिष्क में उठ रहे सवालों का जवाब उन्हें पत्रिका के माध्यम से दिया जाये तो यह पत्रिका काफी लोकप्रिय होगी। इस विचार से उन्होंने सन 1932 में रंगभूमिनाम से एक साप्ताहिक फिल्मी पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया। पत्रिका बाजार में आते ही लोगों ने उसे हाथों-हाथ ले लिया। चार सालों तक बाजार में अन्य कोई भी फिल्मी पत्रिका का प्रकाशन न होने के कारण रंगभूमिने अपना एक अच्छा-खासा पाठक वर्ग तैयार कर लिया, लेकिन बाजार में जब किसी वस्तु की मांग बढ़ने लगती है तो यह बाजार की नियति है कि वहां प्रतिस्पर्धी खड़े होने शुरू हो जाते हैं। रंगभूमिकी बढ़ती लोकप्रियता को देख 1936 में ऋषभ चरण जैन ने चित्रपटनामक फिल्मी पत्रिका प्रकाशित की। बाजार में प्रतिस्पर्धा की दौड़ आरम्भ हो गई। फिल्मी खबर पढ़ने वाले पाठकों को दोनों ही पत्रिकाओं का बेसब्री से इंतजार रहता था। यह पत्रिकाएं फिल्मों के साथ ही साथ तात्कालिक समाज में चल रहे घटनाक्रमों को भी अपने पाठकों के समक्ष इस प्रकार से परोसती थी कि पाठक वर्ग को इससे ऊबाऊपन महसूस न हो।

1947 में देश आजाद हुआ, जिसका प्रभाव आम जनमानस के साथ-साथ फिल्मों पर भी पड़ा। आजादी के पूर्व फिल्म निर्माण का एक बड़ा केन्द्र लाहौर था, इस कारण बंटवारे के समय सिने जगत से जुड़े कलाकार, निर्माता, निर्देशक व अन्य सभी इधर-उधर हो गए। इस कारण एक ओर जहां यह दोनों पत्रिकाएं प्रभावित र्हुइं, वहीं दूसरी ओर सिने जगत की पत्रकारिता करने वाले लोग भी बिखर गये। हालांकि दोनों ही पत्रिकाओं का अंक निकलता तो रहा लेकिन इनमें अब वो पहले जैसी बात नहीं रह गई और धीरे-धीरे इन दोनों पत्रिकाओं का सूर्य अस्त हो गया। 1947 में चित्रपटके संपादक रहे श्री संतपाल पुरोहित ने उससे अलग हो अपनी स्वयं की फिल्मी पत्रिका युगछायानिकाली। यह भी आर्थिक अभाव के कारण लंबे समय तक प्रकाशित नहीं हो सकी। इसके बंद होने के बाद दिल्ली से प्रकाशक बृजमोहन ने फिल्मी चित्रनाम की एक पत्रिका निकाली, लेकिन फिल्मी कहानियों के साथ-साथ इसमें राजनीतिक खबरें होने के कारण यह पाठक वर्ग द्वारा नापसंद की जाने लगी और इसका भी प्रकाशन जल्द ही बंद हो गया। इसका एक सीधा तात्पर्य यह भी है कि तात्कालिक समय का पाठक वर्ग भी फिल्मों की पत्रिका में सिर्फ फिल्मों की ही खबर चाहता था न कि अन्य खबर। इसके बाद फिल्मों से जुड़े विषय पर कई और पत्रिकाएं जैसे बच्चन श्रीवास्तव की कल्पना’, ख्वाजा अहमद अब्बास की सरगम’, ए. पी. बजाज की मायापुरीआदि प्रकाशित हुई। इनमें से कुछ पत्रिकाओं का प्रकाशन अभी भी जारी है, जैसे मायापुरी60 के दशक में आने वाली पत्रिकाओं में पाठक द्वारा रूचि लेने के पीछे एक बहुत बड़ा कारण यह भी था कि उस समय की पत्रिकाओं में सामग्री अच्छी होने के साथ-साथ वे घर में परिवार के सदस्यों के बीच पढ़ने योग्य होती थी, लेकिन जैसे-जैसे समय के साथ समाज में परिवर्तन होता गया, वैसे-वैसे इन पत्रिकाओं के कलेवर और सामग्री में भी परिवर्तन होता गया। परिवर्तन सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहा बल्कि पाठकों की सोच में भी अन्तर आया। तब से अब तक का सफर तय करने वाली मायापुरीमें काफी परिवर्तन हुए। प्रतिस्पर्धा की दौड़ कहें या बाजार का प्रभाव, वर्तमान में मायापुरीके भी मुखपृष्ठ पर अर्द्धनग्न हीरोइनों के चित्र छापे जाने लगे हैं।

पत्रिकाओं के बाद फिल्मी खबरों का दौर अखबारों में भी धीरे-धीरे शुरू होने लगा। 70 के दशक में जब अमिताभ बच्चन के यंग एंग्रीमैन का फ्लू पूरे देश में फैला, तब फिल्मों की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनने लगी। सिने जगत के खास समाचारों को अखबारों के मुखपृष्ठ पर प्रमुखता के साथ छापा जाने लगा। तात्कालिक समय में अखबारों के पृष्ठ-संख्या कम होने के बावजूद भी सिने जगत की खबरों को छापा जाता था। धीरे-धीरे यह प्रक्रिया बढ़ती रही और एक ऐसा वक्त भी आ गया जब समाचार पत्र के साथ हर सप्ताह फिल्मों पर चार रंगीन पृष्ठ फिल्मी खबरों के लिये निकाले जाने लगे। फिल्मी खबरों के लिए समाचार पत्रों में स्थान धीरे-धीरे कुछ इस प्रकार से बढ़ा कि दैनिक भास्कर ने 1997 से नवरंगनाम से चार रंगीन पृष्ठ सिने जगत से जुड़ी खबरों के लिए छापने शुरू कर दिये। इसके अतिरिक्त दैनिक जागरण ने तरंग’, लोकमत ने आकर्षण’, नई दुनिया ने रविवारीय’, राजस्थान पत्रिका ने बॉलीवुड’, दैनिक ट्रिब्यून ने मनोरंजन’, नाम से फिल्म परिशिष्ट निकाले। आज स्थिति यह हो गई है कि ऐश्वर्य राय बच्चन को बच्चा हो रहा है, तो भी खबर उनके फोटों के साथ मुखपृष्ठ पर छपती है।

1960 से 1970 के बीच जब बंगाल में नक्सलवाद की तेज आंधी चल रही थी, ऐसे में भी सत्यजीत रे जैसे लोग सृजनात्मक वयस्कता की ओर बढ़ रहे थे। उनमें नई समझ और सामाजिक विकलता भी बढ़ रही थी और इसका पूरा प्रयोग तात्कालिक समय में आयी उनकी फिल्मों में दिखाई देता है। उस समय प्रदर्शित होने वाली फिल्में
सामाजिक समस्याओं को उठाते हुए, उन्हें सुलझाने का प्रयास करते हुए आपसी सम्बन्ध को मजबूत करने के लिए प्रेरित करती थी। किन्तु इसके विपरीत पिछले एक दशक में आने वाली अधिकतर फिल्में केवल फूहड़पन, अश्लीलता व नग्न प्रदर्शन परोसने के बावजूद और अच्छी पटकथा न होने पर भी सिर्फ संचार माध्यमों के द्वारा जोर-शोर से प्रचार-प्रसार कर प्रदर्शित की जा रही है। पूर्व में सिने जगत की रिपोर्टिंग करने वाला पत्रकार फिल्मों की पटकथा का जो चित्रण अपनी लेखनी के माध्यम से करता था, वही चित्रण लोगों को फिल्मों में भी दिखाई देता था। किन्तु आज का मीडिया इसके ठीक विपरीत हवाओं में बह रहा है। आज मीडिया द्वारा जिस फिल्म को अच्छी रेटिंग प्वाइंट के साथ दर्शकों व पाठकों के बीच लाया जाता है, वास्तविकता उसके विपरीत होती है। कहीं-कहीं तो अलग-अलग मीडिया प्रकाशनों द्वारा दिये जाने वाले इस रेटिंग प्वाइंट में भी इतनी विभिन्नता होती है कि पाठक व दर्शक यह स्वयं तय नहीं कर पाते की वास्तव में उस फिल्म को देखना चाहिए अथवा नहीं।

मीडिया को समाज का आईना कहते हैं, इसलिए वह जो कुछ दिखाता है आम जन उसी आधार पर अपनी सोच को बनाता है। उदाहरणस्वरूप, अभी हाल ही में प्रदर्शित चर्चित अभिनेता शाहरूख की फिल्म रा.वनको मीडिया द्वारा मिलने वाले रेटिंग प्वाइंट की बात करें तो दैनिक जागरण ने इसे जहां 5 प्वांइट में से 4 प्वाइंट दिये वहीं हिन्दुस्तान टाइम्स ने 2 प्वाइंट, टाइम्स ऑफ़  इंडिया ने 3.5, इंडिया टुडे पत्रिका ने 3.5, दैनिक हिन्दी समाचार पत्र इंडियन एक्सप्रेस ने 2 प्वाइंट, इकनॉमिक टाइम्स समाचार पत्र ने 3.5, दैनिक भास्कर ने 3 प्वाइंट, न्यूज चैनल आईबीएन लाइव ने 2.5, जी न्यूज ने 2 प्वाइंट, दैनिक हिन्दी समाचार पत्र डीएनए ने 3 प्वाइंट दिये हैं। इस प्रकार से यहां यह स्पष्ट रूप से देखने को मिल रहा है कि दिये गये रेटिंग प्वाइटों में काफी अन्तर है। अब अगर बात इस फिल्म को लेकर जनता के विचारों की करें तो दर्शकों द्वारा इसे सिरे से नकार दिया गया। दर्शकों ने इसे टाइमपासऔर बकवासजैसे शब्दों से सम्बोधित किया, बावजूद इसके कि कई न्यूज चैनलों व समाचार पत्रों ने इसे अच्छे रेटिंग प्वाइंट्स दिये। मीडिया द्वारा दिया जाना वाला यह रेटिंग प्वाइंट किस आधार पर निर्धारित होता है, यह तो इन मीडिया संस्थानों के मालिक ही बता सकते हैं।
वर्तमान समय में बाजार से प्रभावित मीडिया संस्थानों की स्थिति कुछ ऐसी है कि प्रतिस्पर्धा में शीर्ष पर पहुंचने की ललक ने इन्हें पथभ्रष्ट कर दिया है। पैसे दे कर अपनी बात कहलवाना आज यहां बहुत आसान हो गया है। इस बात से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि वास्तव में तथ्य व सत्य क्या है? और इसके प्रकाशित हो जाने के पश्चात इसके क्या परिणाम होंगे? ऐसी स्थिति में चैथे स्तम्भ पर से भी आमजन का विश्वास धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में इन फिल्मों का समाज पर जो प्रभाव पड़ रहा है, वह सही नहीं है। अतः इस व्यवस्था में सुधार की बहुत आवश्यकता है।

Sunday, April 8, 2012

1857 गदर के नायक मंगल पांडे


जिस पुण्य भूमि पर भगवान विष्णु को कर्तव्य का अहसास कराने वाले महर्षि भृगु पैदा हुए, बलिया के उसी धरती पर 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी व भारत मां के वीर सपूत मंगल पांडे का 19 जुलाई 1827 को तत्कालीन गाजीपुर जनपद के बलिया तहसील के अंतर्गत नगवां गांव के टोला बंधुचक में जन्म हुआ। इनके पिता का नाम सुदिष्ट पांडे व माता का जानकी देवी था।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा। वे तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी के 19वीं नेटिव इंफेंटरी रेजीमेंट के सिपाही थे। पश्चिम बंगाल के बैरकपुर में विद्रोह शुरू करने का श्रेय मंगल पाण्डेय को ही है। अंगेजों द्वारा कारतूसों में जानवरों की चर्बी का प्रयोग करने वाली बात ने मंगल पांडे की आत्मा को झकझोर कर रख दिया। इस राइफल के कारतूस के बारे में कहा गया था कि इसमें गाय व सुअर की चर्बी लगी है और अंग्रेज ऐसा हिन्दू-मुसलमानों का धर्म नष्ट करने के मकसद से कर रहे हैं।
29 मार्च 1857 को मंगल पांडे ने परेड ग्राउंड में ही अपने साथियों को इसके विरोध के लिए विद्रोह करने हेतु ललकारा। अंग्रेज सार्जेंट मेजर ह्यूसन ने जब सैनिकों को मंगल को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया, तो कोई सैनिक आगे नहीं बढ़ा। मंगल ने ह्यूसन को गोली मारकर वहीं ढेर कर दिया। इसके बाद सामने आए लेफ्टिनेंट बॉब को भी मंगल ने गोली से उड़ा दिया। इस दौरान जब मंगल अपनी बंदूक में कारतूस भर रहे थे, तो एक अंग्रेज अफसर ने उन पर गोली चलाई। निशाना चूकने पर मंगल ने उसे भी तलवार से मौत के घाट उतार दिया, लेकिन वह पकड़ लिए गए। उनकी गिरफ्तारी की खबर देशभर की सैनिक छावनियों में जंगल में आग की तरह फैल गई और विप्लवी भारतीय सैनिकों ने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया।
मंगल पांडे द्वारा लगाई गई चिनगारी को ज्वालामुखी बनते देख अंग्रेजों को लगा कि यदि फांसी में देरी की गई तो बगावत उनके शासन को तबाह कर सकती है। इसलिए तय वक्त से 10 दिन पूर्व ही 8 अप्रैल 1857 को ही इस वीर पुरुष को फांसी दे दी गई। स्वतंत्रता के लिए लड़े गए इस युद्ध को शुरू में 1857 का गदर नाम मिला लेकिन बाद में इसे पहली जंग ए आजादी के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई। मंगल पांडे के प्रयास का नतीजा 90 साल बाद 1947 में भारत की आजादी के रूप में निकला और अंग्रेज अपना सब कुछ समेटकर भारत से चले गए।

Wednesday, March 7, 2012

राजनीति के परवान चढ़ रहा, पीढ़ीयों का दर्द



‘‘छोटे-छोटे मतभेदों के प्रति लगाव होता है और समाज में निहित आक्रामकता इन मुद्दों के छोटेपन की वजह से घटती जाती है।’’ यह विचार प्रसिद्ध वैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड का है। वर्तमान समय में भारतीय समाज में अयोध्या का मामला एक ऐसा ही मुद्दा बनकर रह गया है। गंगी-जमुनी तहजीब को भेदने वाला यह मुद्दा आज लोगों के अन्तःमन में घर कर चुका है। बावजूद इसके समाज में रह रहे कुछ लोग इस समस्या को जड़ से खत्म करने हेतु निरंतर प्रयासरत हैं और कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें वास्तव में ज्ञात ही नहीं है कि आखिर यह मुद्दा है क्या? उन लोगों के संज्ञान के लिए यहां अयोध्या मामला एक नजर में देने का प्रयास किया जा रहा है, जिससे भविष्य में इस बाबत कोई सोच निर्धारित करने से पूर्व व्यक्ति को हर घटना की जानकारी हो।

अयोध्या में घूमता समय का पहिया -
1528: अयोध्या में एक ऐसे स्थल पर मस्जिद का निर्माण किया गया जिसे हिन्दू राम का जन्म स्थान मानते हैं।

1853: सर्वप्रथम विवादित स्थल के पास साम्प्रदायिक दंगे हुए। 

1859: अंग्रेज शासकों ने विवादित स्थल पर बाड़ लगा दी और परिसर के भीतरी हिस्से में मुसलमानों को तथा बाहरी हिस्से में हिन्दुओं को प्रार्थना करने की अनुमति प्रदान कर दी।

1949: श्रीराम की मूर्तियां विवादित ढांचे में पायी गई।

1984: विश्व हिन्दू परिषद के नेतृत्व में राम मंदिर के निर्माण के लिए एक समिति का गठन किया गया।

1986: जिला मजिस्ट्रेट ने हिन्दुओं को पूजा-अर्चन करने हेतु विवादित मस्जिद का ताला खोल देने का आदेश  दिया। जिस पर मुसलमानों ने कोर्ट के इस आदेश  का विरोध करते हुए ‘बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति’ का गठन किया।

6 दिसम्बर,1992: बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया। देश  भर में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे, जिसमें लगभग 2 हजार से अधिक लोग मारे गए।

24 नवम्बर,2009: लिब्रहान आयोग की रिर्पोट को संसद के दोनों सदनों के समक्ष प्रस्तुत किया गया। आयोग ने अटल बिहारी वाजपेयी और मीडिया को दोषी ठहराया व नरसिंह राव को क्लीन चिट दे दी।

20 मई, 2010: बाबरी विध्वंस के मामले में लालकृष्ण आडवाणी और कुछ अन्य नेताओं के खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने को लेकर दायर पुनरीक्षण याचिका हाईकोर्ट में खारिज हो गई।

26 जुलाई,2010: विवाद पर सुनवाई के बाद फैसले की तारीख सुनिश्चित  की गई। 

फैसले पर रोक लगाने और बातचीत से मसले का हल निकालने की मांग को लेकर सेवानिवृत्त नौकरशाह  रमेश चन्द्र त्रिपाठी ने उच्च न्यायालय में अर्जी दाखिल की। 

17 सितम्बर,  2010 : उच्च न्यायालय ने श्री रमेश चन्द्र त्रिपाठी की याचिका खारिज कर दी।

इसके पश्चात श्री त्रिपाठी ने इसी आशय की याचिका उच्चतम न्यायालय में दाखिल की। 

28 सितम्बर,2010: उच्चतम न्यायालय ने भी श्री त्रिपाठी की याचिका खारिज कर दी। शीर्ष न्यायालय ने उच्च न्यायालय को मामले के फैसले पर लगी रोक हटा ली। 

30 सितम्बर,2010ः उच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाने का निर्णय दिया।  

30 सितम्बर 2010, इस दिन का पूरे देश  की जनता को बेसब्री से इंतजार था। आज ही के दिन अयोध्या मामले पर इलाहाबाद हाइकोर्ट के लखनऊ खंडपीठ द्वारा इस ऐतिहासिक मामले पर फैसला आने वाला था। पूरे देश की जनता सहित विश्व की भी आॅंखे इस फैसले पर टिकी थी। इस मामले में न्यायालय ने मुख्य रूप से चार बिन्दुओं को संज्ञान में लेकर अपना निर्णय सुनाया। पहला, विवादित धर्मस्थल पर मलिकाना हक किसका है। दूसरा, श्रीराम जन्मभूमि वहीं है या नहीं। तीसरा, क्या 1528 में मन्दिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनी थी और चौथा  यदि ऐसा है तो यह इस्लाम की परंपराओं के खिलाफ है या नहीं। दोपहर के 3ः30 बजे थे, सभी लोग प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से टकटकी लगाए बैठे थे। तभी 4ः20 मिनट पर फैसला सुनाते हुए उच्च न्यायालय की तीन सदस्यी विशेष पीठ के न्यायाधीष न्यायमूर्ति एस.यू.खान, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल और न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने कहा कि जमीन का तीन हिस्सों में बंटवारा किया जाये। जहां रामलला विराजमान हैं,वह हिस्सा हिन्दुओं को तथा राम चबूतरा व सीता रसोई सहित एक तिहाई निर्मोही अखाड़े को और शेष तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया जाये। इस फैसले से जहां एक ओर हिन्दुओं में हर्ष की लहर दौड़ उठी वहीं दूसरी ओर मुस्लिम समुदाय में निराशा दिखाई पड़ी लेकिन इन सब के बावजूद दोनों समुदायों द्वारा न्यायालय के फैसले को सम्मान दिया गया। हालांकि इस फैसले के बाद भी दोनों समुदायों को यह अधिकार प्राप्त है कि वह इस फैसले के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर सकते हैं।

वर्षों से उत्तर प्रदेश की राजनीति का मुख्य केन्द्र बिन्दु बने अयोध्या मामले पर न्यायालय का निर्णय आने के बाद बुद्धजीवियों द्वारा व्यक्त किए गए विचार:-

‘‘इस ऐतिहासिक फैसले पर न्यायालय द्वारा फैसला आने के बाद कांगेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा कि अदालत के फैसले से बाबरी मस्जिद विध्वंस का अपराध कमतर नहीं हुआ है और सभी दोषियों को सजा मिलनी चाहिए। इन्होंने यह भी कहा कि अयोध्या मुद्दे पर बातचीत के जरिए समाधान निकालने के लिए सही सोच वाले लोगों को आगे आना चाहिए और इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के मद्देनजर अगले तीन महीनों में समझौते के लिए काम करना चाहिए।
                                                                                                                                                                    2 अक्टूबर,दैनिक भास्कर

‘‘ अयोध्या के विवादित स्थल के मलिकाना हक को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट के 30 सितम्बर को आये फैसले की गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नए ढंग से व्याख्या करते हुए इसे गांधी के रामराज्य की परिकल्पना को साकार करने वाला बताया।’’
                                                                                                                                  3 अक्टूबर,2010,दैनिक जागरण(रा.सं.)

‘‘ अयोध्या विवाद पर फैसला आ जाने के बाद शिया समुदाय के युवकों से जुड़े एक संगठन ‘शिया हुसैनी टाइगर्स’ ने राम मंदिर के निर्माण के लिए 15 लाख रूपये के मदद की पेशकश  की है। इस संगठन के प्रमुख शमील म्सी ने एक पत्रकार वार्ता में कहा- हम सुन्नी वक्फ बोर्ड से औपचारिक आग्रह करेंगे कि वह इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील न करें और इस विवाद को हमेशा के लिए खत्म कर दिया जाए।’’
                                                                                                                                                               3 अक्टूबर,2010,दैनिक जागरण

‘‘अयोध्या मामले पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने एक बयान जारी कर कहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में आस्था को कानून और सबूतों से ऊपर रखा है और दे का मुसलमान इस निर्णय से खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है।’’
                                                                                                                                                                   3 अक्टूबर,2010, जनसत्ता 

‘‘अयोध्या मामले पर न्यायिक फैसले के बाद आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड के सदस्य और लखनऊ ईदगाह के नायब इमाम मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली ने कहा कि पूरे मुल्क में दोनों समुदायों के धार्मिक नेताओं, राजनेताओं व मीडिया ने इस संवेदनशील मुद्दे पर संयम का परिचय दिया है। यही हालात आगे भी रहने चाहिए।
                                                                                                                                                             3 अक्टूबर,2010,दैनिक जागरण

‘‘ अयोध्या मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को संतुलित करार देते हुए योगगुरू बाबा रामदेव ने कहा कि सभी पक्ष इस समस्या का समाधान चाहते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि अगर किसी को कोई शंका है तो उच्चतम न्यायालय में जाने का मार्ग खुला है, लेकिन अगर इसका समाधान यहीं हो जाता है तो दुनिया के समक्ष एक नजीर पेश कर सकते हैं।’’
                                                                                                                                                               7 अक्टूबर 2010,दैनिक जागरण

‘‘प्रसिद्ध लेखक व स्तम्भकार कुलदीप नैयर ने अयोध्या मामले पर अदालती फैसले के बाद व्याप्त शांति व्यवस्था का पूरा श्रेय मुस्लिम समुदाय को देते हुए कहा कि आडवाणी और समग्र संघ परिवार को एक ओर से रथयात्रा के लिए और विवादित ढांचे के विध्वंस के लिए मुसलमानों से क्षमा मांगनी चाहिए।’’
                                                                                                                                                             13 अक्टूबर,2010,दैनिक जागरण
‘‘ अयोध्या मामले को आपसी बातचीत से निपटाने में लगे इस विवाद से जुड़े 90 वर्षीय मुद्ई हाशिम अंसारी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने पर बल देने वालों को आड़े हाथ लेते हुए कहा है कि वे कतई मामले को सर्वोच्च अदालत में ले जाने के पक्ष में नहीं हैं।’’
                                                                                                                                                                  15 अक्टूबर 2010, राष्ट्रीय सहारा

हाशिम अंसारी के ठीक विपरीत ‘‘इस न्यायिक फैसले के समय पर बाबरी मस्जिद के पक्षकार हाजी महबूब के साथ अयोध्या पहुंचे टाटशाह मस्जिद के इमाम मौलाना कुतुबुद्दीन कादरी समेत दर्जनों की संख्या में मुसलमानों ने एक स्वर से कहा कि मसला बातचीत व सुलह,समझौते से हल करने के बजाय सुप्रीम कोर्ट जाना ही दे व समाज के हित में होगा।
                                                                                                                                                                                                                10 अक्टूबर 2010, दैनिक भास्कर

‘‘ अयोध्या मामले पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के पूर्व जो जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद शाह बुखारी बयान देते फिरते थे कि न्यायालय का फैसला सभी पक्षों को मान्य होगा, वही बुखारी फैसला आने के बाद एक उर्दु अखबार ‘दास्तान-ए-अवध’ के एक पत्रकार अब्दुल वाहिद चिष्ती द्वारा पूछे गए प्रश्न - जब कोर्ट ने फैसला दे दिया है कि विवादित जमींन राम का जन्म स्थान है, तो उसे हिंदुओं को क्यो नहीं सौप दिया जाता? ऐसी जमीन पर तो मस्जिद बनाने के लिए तो रीयत में भी मनाही है, पर भड़क उठे और उसे अपब्द कहते हुए व जान से मारने की धमकी देते हुए बाहर चले जाने तक को कह दिया।’’
                                                                                                                                                                                                       15 अक्टूबर 2010, दैनिक भास्कर
‘‘ इस ऐतिहासिक फैसले पर उत्तर प्रदे हिन्दू महासभा के प्रदे अध्यक्ष कमले तिवारी ने कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा विवादित भूमि का एक तिहाई भाग सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिए जाने का हिन्दू महासभा विरोध करती है। इसके लिए वह अयोध्या आंदोलन की नई शुरूआत करेंगे। हिन्दू महासभा का दावा है कि विवादित भूमि का पूरा हिस्सा ‘रामलला’ का है। उन्होंने बताया कि इस सम्बंध में निर्मोही अखाड़ा के महंत भास्कर दास से बात करने का विचार था लेकिन उनके द्वारा चल रही समझौता वार्ता को देखकर उनसे बातचीत का इरादा स्थगित कर दिया गया है। उन्होंने कहा कि यदि समझौते में दूसरे पक्ष की भूमि राम मंदिर निर्माण के लिए मिलती है तो उसका हम स्वागत करेंगे।’’
                                                                                                                                                                                                             10 अक्टूबर 2010, दैनिक भास्कर

‘‘ इस फैसले के बाद जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा कि अयोध्या मुद्दे का समाधान हो सकता है, बशर्तें सुन्नी मुस्लिम संगठन अपना दावा छोड़ दे। उन्होंने आरोप लगाया कि यह संगठन मुद्दे पर कड़ा रूख अपना कर इसे जटिल बना रहे हैं और समझौते से दूर ले जा रहें हैं। स्वामी ने यह भी कहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुन्नी वक्फ बोर्ड द्वारा दायर वाद संख्या 4 के मुद्दा संख्या 4 के मुद्दा संख्या 26 (बी) में कहा गया है कि चूंकि वाद दायर करने के लिए बाबरी मस्जिद का मुत्तवली ही अधिकृत पार्टी है, इसलिए सुन्नी वक्फ बोर्ड का विवाद में कोई अधिकार नहीं है।                                                                                                                                                                      10 अक्टूबर 2010, दैनिक जागरण

इस प्रकार से यहां स्पष्ट रूप से यह देखने को मिला कि सभ्य समाज के भले मानुष कहे जाने वाले दे के बुद्धिजीवीयों में ही न्यायालय के निर्णय को लेकर असहमति व्याप्त है। कहने का आय यह है कि जहां एक ओर कुछ लोग इस मामले को उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद से ही जड़ से समाप्त करने का प्रयास कर रहें हैं, वहीं कुछ लोग ऐसे भी है जो इस मुद्दे को और तुल पकड़ाने के लिए प्रयासरत हैं। यह वही लोग हैं जो इस मामले को भुना कर अपनी शाख बनाने में लगे हैं। हमारी संस्कृति में यह माना जाता है कि बुजुर्गों के मार्गदर्शन पर ही बच्चों का भविष्य निर्भर करता है, किन्तु जहां बुद्धिजीवियों में ही धर्म और जाति के नाम पर कटुता का भाव चरम पर है,वहां बच्चों को दिया गया मार्गदर्शन कैसा होगा? यह भली भाति समझा जा सकता है।
धर्म-संगम का दे कहे जाने वाले भारत के कर्णधारों ने अपनी राजनीति को सफेद जामा पहनाने के लिए धर्म के नाम पर अयोध्या मामले की ऐसी खाई खोद दी है, जिससे आने वाली न जाने कितनी पीढ़ीयों को धर्म के आधार पर भेदभाव होने का सामना करना पडे़गा। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए यह कह पाना कि किसी सरकार, न्यायपालिका या व्यक्ति या संगठन द्वारा इस खाई को पाट पाना, अब असंभव हो गया है। जिस दे का लोहा ब्रिटि सरकार तक ने माना और अंततः पतित पावन भारत भूमि को उन्हें छोड़कर जाना पड़ा, वही भारत आज धर्म, जाति और सम्प्रदाय के नाम पर बहुत तेजी से बंट रहा है। अब इस दे का भविष्य क्या होगा? यह तो आने वाला समय ही सुनिश्चित कर पायेगा।