Friday, July 29, 2011

साम्प्रदायिक और लक्ष्यित हिंसा (न्याय तक पहुंच और हानिपूर्ति)विधेयक,२०११

 राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने 14 जुलाई 2010 को सांप्रदायिकता विरोधी बिल का खाका तैयार करने के लिए एक प्रारूप समिति का गठन किया था और 28 अप्रैल 2011 की एनएसी बैठक के बाद नौ अध्यायों और 138 धाराओं में तैयार हिंदी व अंग्रेजी  में अनूदित बिल लोगों की सलाह के लिए एनएसी की  वेबसाइट http://www.nac.nic.in/ पर डाला गया है ।राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी)  की अध्यक्ष कांग्रेस सुप्रीमों सोनिया गाँधी जी हैं .इस विधेयक के प्रारूप समिति सदस्य में कुछ निम्न लोग सम्मिलित हैं , जिनके  नाम कुछ इस प्रकार से हैं -
१. गोपाल सुब्रमनियम 
२. माजा  दारूवाला 
३. नजमी वजीरी 
४. पी.आई.जोस 
५. प्रसाद सिरिवेल्ला 
६. तीस्ता सीतलवाड़
७. उषा रामनाथन ( २० फ़रवरी २०११ से अब तक )
८.वृंदा ग्रोवर  (२० फ़रवरी २०११ से अब तक)
 इस विधेयक के  प्रारूप समिति के  संयोजकों में  फराह  नकवी और हर्ष मंढेर के नाम सम्मिलित हैं . इसके अतिरिक्त इस विधेयक के प्रारूप समिति में सलाहकार सदस्य  के रूप में अरुणा राय ,प्रोफ़ेसर जाधव और अनु आगा ,जो एनएससी के कार्यप्रणाली समिति सदस्य भी है, के नाम मुख्य रूप से सम्मिलित है . इनके अतिरिक्त १९ सदस्य और सलाहकार समिति में शामिल है ,जिनका पूर्ण विवरण http://nac.nic.in/communal/advisorygroup.htm पर उपलब्ध है .
साम्प्रदायिक और लक्ष्यित हिंसा(न्याय तक पहुंच और हानि पूर्ति) विधेयक,२०११  का विधेयक संख्यांक  जो कि हिंदी में अनुवादित है कुछ इस प्रकार से है -
  साम्प्रदायिक और लक्ष्यित हिंसा(न्याय तक पहुंच और हानि पूर्ति) अधिनियम,२०११ 
भारत गणराज्य के बासठवें वर्ष में संसद द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित हो :-
 संक्षिप्त नामविस्तार और प्रारम्भ
धारा १. (१) इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम "साम्प्रदायिक और लक्ष्यित हिंसा(न्याय तक पहुंच और हानि पूर्ति) अधिनियम,२०११" है
  (२) इसका विस्तार सम्पूर्ण भारत में है :
परंतु केंद्रीय सरकारजम्मू-कश्मीर राज्य के सहमति से इस अधिनियम को उस राज्य में विस्तारित कर सकेगी .
  (३) यह इस अधिनियम के पारित किए जाने की तारीख से एक वर्ष के भीतर प्रवृत्त होगा .
इसी क्रम में धारा २ में 'ऐसे अपराधों के लिए दंडजो भारत के बाहर कारित किए गए है किन्तु जिनका विचारण विधि द्वारा भारत के भीतर किया जा सकेगा सम्मिलित है .इस प्रकार से इस विधेयक में कुल ९ अध्याय हैं जिनमें कुल १३८ धारा और ४ अनुसूची शामिल हैं जिसे http://nac.nic.in/communal/com_bill.htm इस लिंक पर जाकर हिन्दी या अंग्रेजी दोनों ही भाषाओँ में डाउनलोड कर देखा जा सकता है .
इस विधेयक का उद्देश्य बताया गया है कि यह देश में साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने में सहायक सिद्ध होगा। इसको अध्ययन करने पर ध्यान में आता है कि यदि दुर्भाग्य से यह पारित हो जाता है तो इसके परिणाम केवल विपरीत ही नहीं होंगे अपितु देश में साम्प्रदायिक विद्वेष की खाई इतनी चौडी हो जायेगी जिसको पाटना असम्भव हो जायेगा।यहां तक कि एक प्रमुख सैक्युलरिस्ट पत्रकार,शेखर गुप्ता ने भी स्वीकार किया है कि,इस बिल से समाज का साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण होगा। इसका लक्ष्य अल्पसंख्यकों के वोट बैंक को मजबूत करने के अलावा हिन्दू संगठनों और हिंदू नेताओं का दमन करना है।‘’   
इस विधेयक के पारित कराये जाने वाली समिति के सदस्यों का परिचय कुछ इस प्रकार से है - हर्ष मंडेर रामजन्मभूमि आन्दोलन और हिन्दू संगठनों के घोर विरोधी हैं। अनु आगा जो कि एक सफल व्यवसायिक महिला हैंगुजरात में मुस्लिम समाज को उकसाने के कारण ही एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पहचानी जाती है । तीस्ता सीतलवाड और फराह नकवी की गुजरात में भूमिका सर्वविदित है। उन्होंने न केवल झूठे गवाह तैयार किये हैं अपितु देश विरोधियों से अकूत धनराशी प्राप्त कर झूठे मुकदमे दायर किये हैं और जांच प्रक्रिया को प्रभावित करने का संविधान विरोधी दुष्कृत्य किया है। आज इनके षडयंत्रों का पर्दाफाश हो चुका हैये स्वयं न्याय के कटघरे में कभी भी खडे हो सकते हैं।
इस विधेयक के अंतर्गत घोषित सलाहकारों का परिचय कुछ इस प्रकार से हैं- जिनमें  'मुस्लिम इन्डिया” चलाने वाले सैय्यद शहाबुद्दीनधर्मान्तरण करने के लिये विदेशों में भारत को बदनाम करने वाले जोन दयाल , हिन्दू देवी-देवताओं का खुला अपमान करने वाली शबनम हाशमी और नियाज फारुखी हैं  
साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा अधिनियम २०११ के कुछ प्रावधान इस प्रकार से हैं -
अधिनियम की धारा १ के उपधारा २ के अंतर्गत इसका प्रभाव क्षेत्र सम्पूर्ण भारत पर होगा लेकिन जम्मू-कश्मीर में राज्य के सहमति से इसे विस्तारित किया जायेगा .यह अधिनियम पारित किये जाने की तारीख से १ वर्ष के अंतर्गत लागू होगा तथा ऐसे अपराध जो भारत के बाहर  भी किये गए हैं उन पर भी इस अधिनियम के उपबंधों के अंतर्गत उसी प्रकार कार्यवाही होगी जैसे वह भारत के भीतर किया गया हो .
१ वर्ष के अंतर्गत लागू किये जाने की बाध्यता को रखकर यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है कि सोनिया गांधी के यूपीए सरकार के रहते ही यह कानून अनिवार्य रूप से लागू कर दिया जाए .
* अधिनियम की धारा ३(ग) के अंतर्गत जानबूझ कर किसी व्यक्ति के विरूद्ध किसी समूह की सदस्यता के आधार पर ऐसा कोई कार्य या कार्यों की श्रृंखला जो चाहे सहज हो या योजनाबद्ध जिसके परिणाम स्वरुप व्यक्ति या संपत्ति को क्षति या हानि पहुंचती है,दंडनीय अपराध है. 
 अधिनियम की धारा ३ (ड.) के अनुसार भारत संघ के किसी राज्य में कोई धार्मिक एवम भाषायी अल्पसंख्यक या भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३६६ खंड २४ व २५ के अंतर्गत अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां समूह के अंतर्गत आती हैं और इन्हीं समूह पर किये गए अपराध के लिए यह कानून प्रभावी होता है .
अब यहां प्रश्न यह उठता है कि समूह के अंतर्गत शामिल किये गये धार्मिक अल्पसंख्यक क्या साम्प्रदायिक या लक्ष्यित हिंसा में सम्मिलित नहीं होते ?
दूसरा प्रश्न यह है कि यदि दो समूहों के मध्य में ही साम्प्रदायिक हिंसा होती है तो यह कानून किस प्रकार प्रभावी होगा अर्थात उड़ीसा में अनुसूचित जनजातियों और ईसाईयों के मध्य संघर्ष या केरल में ईसाईयों एवं मुस्लिमों के बीच संघर्ष की स्थिति में इस कानून की क्या भूमिका होगी ?  .
* अधिनियम की धारा ३ (च) के अनुसार इस अधिनियम में परिभाषित समूह  के किसी व्यक्ति का समूह  की सदस्यता के आधार पर व्यापार या कारोबार का बहिष्कार या जीविका अर्जन करने में उसके लिए अन्यथा कठिनाई पैदा करना ,तिरस्कार पूर्ण कार्य से सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करना या ऐसा कोई अन्य कार्य करना. चाहे वह इस अधिनियम के अधीन अपराध हो या न हो परन्तु जिसका प्रयोजन एवं प्रभाव भयपूर्ण शत्रुता या आपराधिक वातावरण उत्पन्न करना हो ,इस अधिनियम के अंतर्गत अपराध के श्रेणी में आता है .
यह ऐसे विषय हैं जिनको निश्चित करना बहुत कठिन है कहने का तात्पर्य यह है कि कोई व्यक्ति किस बात से अपने आपको शर्मिंदा अनुभव करेगा या उसे कौन सा कार्य भयपूर्ण लग सकता है यह निर्धारित कर पाना अत्यंत कठिन है .
अधिनियम की धारा ३(ञ) के अनुसार अपराध के फलस्वरूप  किसी समूह का कोई व्यक्ति शारीरिक मानसिक मनोवैज्ञानिक या आर्थिक हानि उठाता है तो न केवल वह अपितु उसके नातेदार विधिक संरक्षक और विधिक वारिस भी पीड़ित माने जायेंगे .
यहां यह समझ से परे है कि मानसिक व मनोवैज्ञानिक हानि को किस प्रकार से मापा जाएगा?     
अधिनियम की धारा ८ के अनुसार शब्दों द्वारा या तो बोले गए या लिखित या इशारों द्वारा या दृश्यमान चित्रण को या किसी भी ऐसे कार्य को प्रकाशित , संप्रेषित या प्रचारित करना , जिससे किसी समूह या समूह के व्यक्तियों के विरुद्ध सामान्यतया या विशिष्टतया हिंसा का खतरा होता है या कोई ऐसा व्यक्ति ऐसी सूचना  का प्रसारण या प्रचार करता है या कोई ऐसा विज्ञापन व सुचना प्रकाशित करता है जिसका अर्थ यह लगाया जा सकता हो कि इसमें घृणा को बढ़ावा देने या फैलाने का आशय निहित है .उस समूह के व्यक्तियों के प्रति ऐसी घृणा उत्पन्न होने की संभावना के आधार पर वह व्यक्ति दुष्प्रचार का दोषी है .
ऐसी स्थिति में अगर किसी समाचार पत्र द्वारा आतंकवाद की किसी गतिविधि में सम्मिलित समूह के लोगों के नाम प्रकाशित करने की स्थिति में भी उस समूह के प्रति घृणा की भावना उत्पन्न हो सकती है .अतः अजमल कसाब और अफजल गुरु का नाम भी समाचार पत्रों में प्रकाशित करना भी अपराध के श्रेणी में आएगा .
आतंकवाद के ऊपर किसी परिचर्चा या राष्ट्रीय सेमीनार में किसी समूह के लोगों के संलिप्तता पर कोई चर्चा नहीं हो सकेगी .अतः यह कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी अंकुश लगता है .
ड्राफ्ट समिति की स्दस्य अनु आगा ने अप्रैल ,२००२ में कहा था,” यदि अल्पसंख्यकों को पहले से ही तुष्टीकरण और अनावश्यक छूटें दी गई हैं तो उस पर पुनर्विचार करना चाहिये। यदि ये सब बातें बहुसंख्यकों के खिलाफ गई हैं तो उनको वापस लेने का साहस होना चाहिये। इस विषय पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिये।(इन्डियन एक्स.,८ अप्रैल,२००२). इन नौ वर्षों में अनु आगा ने इस विषय में कुछ नहीं किया। 
एक अन्य सैक्युलर नेता,सैम राजप्पा ने लिखा है,” आज जबकि देश साम्प्रदायिक हिंसा से मुक्ति चाहता हैयह अधिनियम मानकर चलता है कि साम्प्रदायिक दंगे बहुसंख्यक के द्वारा होते हैं और उनको ही सजा मिलनी चाहिये। यह बहुत भेदभावपूर्ण है।(दी स्टेट्समैन,६जून,२०११)  
सलाहकार परिषद के ही एक सदस्यएन.सी. सक्सेना ने कहा था ,” यदि अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति द्वारा बहुसंख्यक समाज के किसी व्यक्ति पर अत्याचार होता है तो यह विषय भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आयेगाप्रस्तावित अधिनियम में नहीं।” (दी पायनीयर,२३ जून,२०११) 
इस कानून का संरक्षण केवल बहुसंख्यक समाज के लिये नहीं अल्पसंख्यक समाज के लिये भी है। फिर इस अधिनियम की आवश्यक्ता ही क्या हैक्या इससे उनके इरादों का पर्दाफाश नहीं हो जाता? अतः भारत के बहुसंख्यक समाज को अब चेतना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि क्या वह आजाद हिन्दुस्तान में अब द्वितीय श्रेणी की नागरिकता में जीवनयापन के लिए तैयार हैं . 


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